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चाणक्यसूत्राणि
रष्टियोंसे कर्तव्यशील व्यक्ति सदा ही यह समझता रहता है कि समग्र मानव-समाजके कल्याणमें मेरा भी कल्याण निःसंदिग्ध रूपसे विद्यमान है।
मार्य चाणक्य इस सूत्र में कर्तव्याकर्तव्यकी यह कसौटी दे रहे हैं कि मनुष्य अपने क्षुद्र व्यक्तिगत कल्याणको समस्त मनुष्य-समाजके कल्याणसे पृथक् न करे, अपने क्षुद्र महंकारको समाज में विलीन करदे और समाजके कल्याणमें ही अपना कल्याण समझकर कर्तव्य-निर्णय किया करे । आर्य चाणक्यकी दृष्टिमें प्रत्येक क्षण इस महत्वपूर्ण कर्तव्यको करते रहना ही कर्तव्यशील लोगोंके कर्तव्यमय जीवनका स्वरूप होता है। जीवन के प्रत्येक क्षण कर्तव्य पालनका सन्तोष लेते रहना ही मनुष्यका शान्तिपूर्ण विजयी जीवन है । मनुष्य अपनी इस शक्तिको काममें लाये या न लाये, परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह अपने मनको प्रत्येक क्षण शान्त रखने में अनन्त शक्तिमान है। मनुष्यको अपनी शान्तिको ही अपने कर्तव्यकी कसोटी बनाना चाहिये । अपनी शान्तिको ही कर्तव्यकी कसौटी रखकर कर्तव्य-निर्णय करनेवाले लोग साधारण लोग नहीं होते, ये लोग विश्व. विजयी होते हैं । इस प्रकारके विश्वविजयी वीरका मानव-समाजका सच्चा हितकारी सेवक होना अनिवार्य है।
समाज-सेवा ही मानव-धर्म है। जो समाजमें मनुष्यत्वको जाग्रत रखना चाहें उनके लिये यह अनिवार्य रूपसे आवश्यक है कि वे अपनी व्यक्तिगत मनुष्यताको स्वयं अपने ही में जाग्रत रखें । इसलिये रखें कि मनुष्य स्वयं ही समाज-निर्मात्री प्राथमिक इकाई है। मनुष्य अपने विवे. कके सम्मुख समाजकी शान्तिको सुरक्षित रखने के लिये उत्तरदायी है। कर्तव्य किसी दबावसे नहीं किया जाता किन्तु भात्मसंतोषके लिये किया जाता है। अपनी कर्तव्यनिष्ठाका प्रमाणपत्र अपने ही अन्तरात्मासे लिया जाता है, बाहर किसीसे नहीं। जो लोग अपने विचारकी हीनतासे बाह्य जगतसे कर्तव्यनिष्ठाका प्रमाणपत्र लेना चाहते हैं, वे अपनी सच्ची शक्तियोंको खोदेते हैं और कर्तव्यभ्रष्ट होजाते हैं। बाह्य जगत्से प्रमाणपत्र पानेके