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सदबुद्धिहीनता ही पैशाचिकता
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धूर्त लोग मनकी बात छिपाकर दूसरोंको ठगनेके लिये ऊपरके मनसे बनावटी बातें बनाया करते हैं।
मनस्यन्यद्वचस्यन्यत्कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम् ।
मनस्येकं वचस्येक कर्मण्येकं महात्मनाम् ॥ (विष्णुशर्मा ) दुर्जनके मनमें कुछ, वाणीमें कुछ तथा कर्ममें कुछ और ही होता है। महात्माके तो मन, वाणी, कर्म तीनोंमें एक ही बात होती है। अनार्य के वाणीमें कपट शीतलता होती है परन्तु उसके हृदय में वज्रसे भी कर्कश दुर्बुद्धि छिपी रहती है।
( सद्बुद्धिहीनता ही पैशाचिकता ) बुद्धिहीनः पिशाचादनन्यः ॥ ५२७ ॥ सुबुद्धि (या सद्बुद्धि ) हीन व्यक्ति घृणाका पात्र होता है। विवरण- बुद्धिहीनके माचरणमें सर्वत्र लघुता, क्षुद्रता, नीचता और पैशाचिकताका प्रदर्शन रहता है । बुद्वियुक्त मनुष्य तो बुद्धि से हिताहितका विवेक करके हेयको त्यागकर, उपादेयको अपनाकर सब काम सचित रीतिसे कर लेता है । बुद्धिहीनसे यह सब नहीं हो पाता। वह अपने स्वेच्छाचारसे ठोगोंकी घृणा तथा अपेक्षाका पात्र बन जाता है।
राजाका कर्तव्य है कि वह अपने राज्य मेंसे बुद्धिहीनताका बहिष्कार करने के लिये सुबुद्धि के प्रचार तथा प्रसारके सुदृढ उपाय करे। राज्यमें धार्मिक, सदाचारी, बुद्धिमान् लोग अधिकतासे उत्पन्न होते रहें, ऐसा प्रबन्ध करना राजाका राष्ट्रीय कर्तव्य है । जो राजा योग्य लोगोंके उत्पादनकी भोरसे उदासीन है वह अपने राज्य में श्रीवृद्धि के लंबे चौडे कार्यक्रम चलाता हुमा भी पिशाचोंकी संख्या बढा रहा है।
बुद्धिहीन तथा पिशाचमे कोई मन्तर नहीं है। भोजन तथा मोगमात्र पहचाननेवाली बुद्धि वही है जिसे हिताहितका परिचय है। हिताहित