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चाणक्यसूत्राणि
बुद्धि से हीन मनुष्य सदा ही समाजका अहित करनेवाला कुकर्मा होता है । समाजकी शान्ति हरनेवाले कुकर्मा लोग ही असुर या पिशाच हैं । पाठान्तर- धीहीनः पिशाचादनन्यः ।
( आत्मरक्षाके साधनोंके साथ यात्रा करो )
असहायः पथि न गच्छेत् ।। ५२८ ।। अपने साथ आत्मरक्षाके साधन शस्त्रास्त्र लिये विना मार्ग न चले।
विवरण-- यहां पर जानना यह है कि मनुष्यका असहायपना आरमरक्षाकी योग्यतासे ही मिटता है। शस्त्रहीन दो चार, दश पांच भी असहाय ही माने जाते हैं। मनुष्यका अपहायपन संख्याधिक्यसे दूर नहीं होता। प्रजामें आत्मरक्षाकी व्यक्तिगत योग्यतासे दी देशका असहायपन मिटता है।
अंग्रेज जब भारत आया था तब उसने भारतके प्रत्येक ग्राममें विभक्त शासनशक्ति तथा न्यायशक्तिको छीन कर तो जिलों में न्यायालयों की स्थापना करके उन्हें न्यायकी दूकानोंका रूप दे दिया था और ग्रामोंका आत्मरक्षामें समर्थ बनाये रखनेवाली शस्त्रशक्तिको उनसे छीनकर अर्थात् ग्रामवालि. योको निःशस्त्र, नपुंसक विरोध करने के अयोग्य बनाकर रखा था और सोचा था कि नपुंसक राष्ट्रपर शासन करना सुकर है। हमारी वर्तमान राष्ट्रीय कहलानेवाली सरकार भी नपुंसक राष्ट्र पर शासन करने में सुभीता देखकर विदेशियों को दुष्ट स्वार्थी बुद्धि की निन्दनीय उपज शस्त्रकान नको जानबूझकर नहीं तोड रही है। जिस कारणसे ब्रिटिशने यह कानून बनाया था उसीको हमारी अविचारशील शहरी सरकार चालू रख रही है ।
जनता स्वभावसे शान्तिप्रिय है। शान्ति-प्रिय प्रजाका शान्ति-रक्षक राज. शक्तिका विद्रोही होना असंभव कल्पना है । जो सरकार कानुनके दबावसे जनताको निरस्त्र, नपुंसक, असंगठित रखने में अपनी सुरक्षा समझ रही है वह जनताकी सदिच्छाका विद्रोह करके पशुबल से राज्यशासन कर रही है।