________________
परधनके संबंध श्रेष्ठ नीति
२३९
कभी लोम नहीं करते । वे संसारके धनोंको दूसरों के पास रक्खी हुई सत्यकी धरोहर मानकर उसकी भोरसे निश्चिन्त तथा निरीह बनेरहते हैं । असाधु लोग पराये दुग्योको सत्यका न मानकर अपना भोग्य माननेकी भूलसे भटक जाते तथा उनके अपहरणमें प्रवृत्त होजाते हैं।
अथवा- साधुलोग परकीय धनों को अपनासाही समझते और उन्हें भी अपने ही धनके समान विनाश, अपहरण मादिसे बचाते हैं। साधु लोगों में अपने परायेका भेद नहीं होता।
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ मेरे तेरेकी भावना लघुचेताओंका काम है । उदारचरितोंकी दृष्टि में तो यह सारी ही वसुन्धरा उनका कुटुम्ब है । "आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः" जो सब भूतोंको अपनेपनकी भावनासे देखकर उनमें ऐकात्म्यका दर्शन करता है वही पण्डित है।
अथवा- साधुपुरुष दूसरोंके धनोंकी भी सरक्षा अपने धनके समान सत्यार्पणमें ही समझते हैं।
( परधनके सम्बन्धमें श्रेष्ठ नीति ) परविभवग्वादरो न कर्तव्यः ॥२६६ ॥ दूसरेके धनोंको लोभनीय नहीं मानना चाहिये। विवरण- व्यक्तिगतधनतृष्णा ही दूसरेके धनमें लोभ उत्पन्न करने वाली सामाजिक न्याधि है । यदि परधनोंको लोभनीय माना जायगा तो एनके अपहरणकी इच्छा होना अनिवार्य होजायगा और तब मनुष्यका मनुष्यस्व ही जाता रहेगा । जो मनुष्य अपने न्यायार्जित धनमें अलंबुद्धि रखता है वह परधनोंको आदर अर्थात् महत्व या लोभनीय दृष्टि से कभी नहीं दखता। दूसरेके धनका लोभ न करना ही उसका निरादर या उपेक्षा है। लोभीका चोर होना अनिवार्य है । लोभी तो हो और चोर न हो यह असम्भव है। पाठान्तर- परविभवेष्वादरो नैव कर्तव्यः ।