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विषम परिस्थितिमें भी कर्तव्य
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सत्यनिष्ठोंके समूह एकत्रित होजाते हैं तब वहां भी कोई किसीका नेता या अनुयायी नहीं होता । कहीं भी एकत्रित होनेवाले सबके सब सत्यनिष्ठ सत्यके ही नेतृत्वमें अटूट संघ बनाकर रहते हैं। पाठान्तर- महता साहसं न परेण कर्तव्यम् ।
अधिक शक्तिशाली शत्रुके साथ संग्रामके अवसरपर साहस (अर्थात् निर्बुद्धिता) न करे ।
दुष्ट शत्रु अपनी भौतिक शक्तिके घमंडमें माकर ही सत्यनिष्ठ धार्मिक पर माक्रमण करता है । सत्यनिष्ठ धार्मिकके लिये केवल भौतिक शक्तिका भरोसा करना निर्बुद्धिता है। उसे उस समय उपायान्तरोंसे काम लेकर भात्मरक्षा करनी चाहिये । उसके पास विश्वविजयिनी बुद्धिशक्ति स्वभावसे रहती है । उसे कौशलसे ही शत्रुविजय करना चाहिये । शत्रुदमनके लिये जिस समय जिस अस्त्रका प्रयोग करना उचित होता है वही उसका सत्यनिष्ठारूपी रणकौशल होजाता है ।
( विषम परिस्थिति में भी चरित्ररक्षा कर्तव्य )
कदाचिदपि चरित्रं न लंघयेत् ॥ १६३ ॥ मनुष्य काम, क्रोध आदि विकारोंकी आधीनता स्वीकार करके अपने चरित्र (स्वभाव-स्वधर्म-मानवीय कर्तव्य ) के विपरीत कोई ऐसा काम न कर बैठे कि वह जीवनभर हृदय में चुभनेवाला कांटा बन जाय ।
विवरण- मनुष्य अपनी सुशीलता, सज्जनता और चरित्रको न त्यागे । सज्जनता, सुशीलता, सच्चारित्र्य इस अपार संसारसागरमें तैरनेवाले मानव के निष्कपट साथी माता, पिता, बन्धु, बान्धव और सर्वस्व हैं। अपने चरित्रकी रक्षा मानवका सबसे महत्वपूर्ण काम है । वृद्धोंने कहा है-'सर्वदा सर्वयत्नेन चरित्रमनुपालयेत् ' मनुष्य अपना समस्त प्रयत्न करके अपने चरित्रकी रक्षा करे । " शीलेन सर्व जगत् " शील एक ऐसा दिव्य साधन