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चाणक्यसूत्राणि
है कि इससे समस्त संसारपर वशीकार प्राप्त होजाता है। चरित्रलंघनसे संसारमेंसे मनुष्यका विश्वास उठ जाता है । संसारमें सच्चरित्रको ही मादर मिलता है।
क्षुधाों न तृणं चरति सिंहः ॥ १६४॥ जैसे सिंह बुभुक्षासे व्याकुल होने पर भी अपना मांसाशी स्वभाव त्यागकर तृणभोजी नहीं बनजाता इसी प्रकार जीवनमें चरित्रकी बहुमूल्यताको समझनेवाले लोग मनुष्यको बिलो. डालनेवाली उत्तेजना और विपत्तिके अवसरोंपर भी अपने सत्यको नहीं त्यागते और सच्चरित्रता तथा तेजस्विताको तिलांजलि नहीं देबैठते।
विवरण-वे मन्थनकारी होकर पथभ्रष्ट बनाडालनेवाले अवसरोंपर भी धीरजसे अपनी सत्यनिष्ठा तथा उज्ज्वल चरित्रको समुज्ज्वल रखते हैं। "सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता" बडे लोग क्या अच्छे और क्या बुरे दोनों दिनों में अपना चरित्र एकसा उदार बनाये रखते हैं। पाठान्तर--न क्षुधार्तोऽपि सिंहस्तृणं चरति ।
(विश्वासपात्र रहना प्राणरक्षासे अधिक मूल्यवान् )
प्राणादपि प्रत्ययो रक्षितव्यः ॥ १६५ ॥ मनुष्य अपने प्राणोंको संकटमें डालकर भी ऋजुओंके साथ ऋजुतारूपी अपनी विश्वासपात्रताकी तथा राष्ट्र के साथ अपनी नागरिकतारूपी विश्वासपात्रताकी रक्षाको अपने जीवन में मुख्य स्थान देकर रखे ! सूत्रमें अपि शब्द अवश्य अर्थमें व्यवहृत हुआ है।
(पिशुनकी हानि ) पिशुनः श्रोता पुत्रदारैरपि त्यज्यते ।। १६६॥ सुनी हुई गुप्त बातोंके आधारपर लोगों में झगडे लगानेवाले विश्वासघातीको उसके पारिवारिक तक त्याग देते हैं ।