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चाणक्यसूत्राणि
प्रतिष्ठित कर देता है यहांतक कि मातापिता, भ्राता, संतान सबको ठगने लगता है । जो समाजके सत्पुरुषको ठग रहा है वह अपने पारिवारिक स्वजनों को भी ठग रहा है। उसे कहीं भी स्वजन नहीं दीखता, धन ही उसका ध्येय है । इस प्रकार सामाजिक गुणकी अभिवृद्धिकी दृष्टिसे मनुष्यको अर्थार्थी प्रवृत्तिपर पूर्ण नियन्त्रण होना चाहिये। यह ध्यान रक्खा जाना चाहिये कि देश में सामाजिक गुण ही पूज्य माने जायँ और धनको मनुष्यतासे उच्च प्रतिष्ठाका पद न मिल सके। इसका एकमात्र सरल उपाय मनुव्यता - प्रेमी सुसाहित्य - प्रचार से समाजकी आध्यात्मिक दृष्टिको भ्रान्तिरहित करके नैतिक राज्यसंस्थाके द्वारा सुशिक्षाका प्रचार करना है !
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आशया बध्यते लोकः ॥ ५०३ ॥
अविचारशील संसार कर्तव्य के बन्धन में आवद्ध न होकर आशाके बन्धन में बँधकर काम करता और अपना धैर्य खोता रहता है ।
विवरण - ' यह मुझे मिल जाय ' इस प्रकारको आकांक्षा दी अाश । है | आशा में रहना, शुभ भावीकी प्रतीक्षा में वर्तमानका शुभ उपयोग न कर सकना हानिकारक मनोदशा है। मनुष्य आशाकी दासतामें अधीर होकर कर्तव्य में हाथ डालकर दुःखी होता है । समाज के उत्थान में आशा के दास मनुष्यों का कोई स्थान नहीं है। समाज के अभ्युत्थानों के कर्तव्य में अपनेको झोंक देनेवाले तथा फल मिळने न मिलनेके प्रति उदास रहनेवाले कर्तव्यनिष्ठ लोगोंका ही समाजमें महत्वपूर्ण स्थान होता है । समाजकी उन्नति कर्तव्यपरायण कर्तव्यैक-सर्वस्व लोगोंके अदम्य उत्साहोंपर ही निर्भर करती है ।
आशापाश- शतैर्बद्धाः काम-क्रोध-परायणाः । ईहन्ते काम - भोगार्थ मन्यायेनार्थ संचयान् ॥