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भोगमें जीवन नष्ट कर रहा है
करना होता है । मनपर सत्यकी प्रभुताको सुप्रतिष्ठित रखना ही उसका लक्ष्य होता है। वह सत्यस्वरूप प्रभुकी सेवाको द्वार बनाकर धनोपार्जन भी करता और उसे सत्यकी सेवामें लगाकर अखण्ड सुखमयी चिरशान्तिका उपार्जन भी कर लेता है।
याग, दान, औषध, जीवन यात्रा मादि समस्त कामों के अर्थाश्रित होनेसे संसारकी धनार्थी प्रवृत्ति स्वाभाविक है । परन्तु स्वाभाविक होनेपर भी'अति सर्वत्र वर्जयेत् ' के अनुसार मनुष्यकी इस प्रवृत्ति में अतिके माते ही उसके समस्त मानवीय गुणों का पर्वनाश होजाता है । अर्थपरायण मनुष्य भूल जाता है कि "धन तो एक साधन है। धनके सदुपयोगसे साध्य, शान्ति या सुस्व ही मानवजीवन का लक्ष्य है । इस लक्ष्यको खो देनेपर धन का कोई भी मूल्य नहीं है । जो धन मानवजीवनके लक्ष्य, शान्ति या उसके मानवोचित गुणों का विरोध करके माता है वह उसकी मनुष्यताके गलेपर छुरी चलाता है। ऐसा धन प्राणों का जंजाल बन जाता है और ग्राह्य न होकर त्याज्य होजाता है।" __ सब मानते हैं कि धन जीवनकी अत्यावश्यक वस्तु है। परन्तु धन ही तो सब कुछ नहीं है। मानवजीवन में मानवोचित गुणों का ही तो धनसे ऊँचा महत्वपूर्ण स्थान है । धनको मानवोचित गुणसे अधिक महत्व देना तो मनुष्य की पाशविक प्रवृत्ति है। इसीलिये यदि अपने समाजको मानवसमाज बनाना हो तो मनुष्य की भाँख मींचकर अर्थार्थी बन जाने की प्रव. त्तिपर रोकथाम रखकर अपने समाजको सामाजिक गुणोंका उपजाऊ क्षेत्र बनाने का सुदृढ प्रबन्ध करना ही होगा।
मनुष्य अर्थार्थी रहता रहता स्वार्थान्ध होकर अपनी ही माताको नोंच. नोंचकर खानेवाले बिच्छूके बच्चोंके समान अपने ही उपजीच्य समाजकी आंखों में धूल झोंकझोंककर उसे ठगकर उसके उचित अधिकारका अप. हरण करके धनी और सुखी बनना चाहता है। देशमे से मनुष्यताको निर्वासित कर डालता है और अपने संसारमें अधर्म तथा स्वार्थका साम्राज्य