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चाणक्यसूत्राणि
शान्तिप्रिय मनुष्य का स्वभाव अनुद्वेगकारी, शान्त, अनुकूल स्थान में बहना स्वीकार करता है, उद्वेगकारी अशान्त प्रतिकूल में नहीं । भलको बुरे वातावरणमें रहने से उद्वेग होता है । बुर्रोको अच्छा शान्तिपूर्ण वातावरण सहन नहीं होता ।
न विना परवादेन रमते दुर्जनो जनः । काकः सर्वरसान् भुक्त्वा विनाऽमेध्यं न तृप्यति ॥ दुर्जनों की चौपाले परनिन्दासे मुखरित रहती हैं। उन्हें परनिन्दा के विना रोटी नहीं पचती । काक पड्स खाकर भी जबतक विष्ठा नहीं खा लेता तबतक उसका मन नहीं छकता
( संसार भोजन और भोग में जीवन नष्ट कर रहा है ) अर्थार्थं प्रवर्तते लोकः ॥ ५०२ ।।
सारा संसार अर्थके लिये कर्ममें प्रवृत्त होता है ।
विवरण - सबको जानना चाहिये कि अर्थ जीवनका साधनमात्र ही है परन्तु लक्ष्य नहीं है। क्योंकि लोग जीवनका लक्ष्य निश्चित करनेसें भ्रांति कर लेते हैं इसीलिये ये असदुपायोंसे बनार्जन करने लग जाते हैं ! जब मनुष्य श्रान्तिवश इन्द्रियसुखको ही जीवनका लक्ष्य बना लेते हैं, तब उनके मनका इन्द्रिय-दास बन जाना स्वाभाविक होजाता है। कामना तथा दुःख ये दोनों इन्द्रियों की दासताके ही नाम हैं । जो मनुष्य इन्द्रिय-सुखको जीवनका लक्ष्य बनाकर धनोपार्जन करते हैं, उनका धन सुख-साधन न रहकर दुः खसाधन रह जाता है। वह अपने ही उपार्जित वनसे दुःख मोल लता चला जाता है। उसका धन अनुपायसे अर्जित होनेके कारण असत्यसेवारूपों दुःखवरणमें दो दुरुपयुक्त होता है। इसके विपरीत जिसके जीवनका लक्ष्य इन्द्रियोंपर मनको प्रभुता सुप्रतिष्ठित रखना होता है, अनिवार्य रूपसे सदुपायोंमें ही धनार्जन करता है। उसके जीवनका लक्ष्य जिस किसी प्रकार धनार्जन कर लेना न होकर सदुपायसे ही धनार्जन
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