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चाणक्यसूत्राणि
( नीच स्वभाव ) सुपूजितोऽपि दुर्जनः पीडयत्येव ।। २०५॥ दुर्जन उदारताका व्यवहार पाकर भी अवसर पाते ही अनिष्ट करनेसे नहीं चूकता।
विवरण- उपकारीको दुःख पहुँचाये बिना दुर्जनको शान्ति नहीं पडती। दुर्जन दूध पीकर विषवमन करनेवाले साँप या त्राताके देहमें भी डंक मारनेवाले विच्छ्रके समान अपने दुरतिक्रमणीय स्वभावसे जबतक किसीका अनिष्ट नहीं करता तबतक उसे ठंडक नहीं पडती । वह अपने स्वभावसे दूसरोंका अपकार करने के लिये विवश है। इसलिये लोग धार्मिकताका सस्ता यश लूटने या दुर्जनोंसे महात्मापनका प्रमाणपत्र लेनेके लिये उनके साथ विश्वासका संबंध स्थापित करने की भूल न करें। पाठान्तर- सुपूजितोऽपि बाधत दर्जनः।
चन्दनादीनपि दावोग्निदहत्येव ।। २०६॥ जैसे दावाग्नि अपने दाहकत्व स्वभावसे विवश होकर चन्द नकी शीतलता तथा सुगन्धका गुणग्रहण न करके उसे भी भस्मीभूत करडालती हैं, इसीप्रकार उपकृत भी शठ उपकार करनेवालेका कृतज्ञ न होकर उसका भी अपकार ही करता है।
( अधिक सूत्र ) शिरसि प्रस्थाप्यमानो वहिनर्दहत्येव जैसे सिरपर धारण किया हुआ भी वहिन अपने दाहक स्वभा. वसे विवश होकर अपने सम्मानदाताको भी निश्चित रूपसे जलाता है इसीप्रकार दुर्जन, सत्कृत तथा उपकृत होनेपर भी सत्कर्ता तथा उपकर्ताको निश्चित रूपसे पीडा पहुँचाता है।
अपि निर्वाणमायाति, नानलो याति शीतताम् । भाग बुझ तो सकती हैं परन्तु शीतल नहीं होसकती। इसीप्रकार नीच विनष्ट तो हो सकता है परन्तु पनी नीताको त्याग नहीं सकता।