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अपमान करना अकर्तव्य
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( अपमान करना अकर्तव्य )
कदापि पुरुषं नावमन्येत ॥ २०७ ॥ कभी किसी पुरुषका अपमान मत करो। विवरण- मनुष्यको शीलसे समस्त जगतपर वशीकार पाकर रहना चाहिये। दूसरोंका अपमान अपने ही सद्गुणोंका मर्दन करडालना है। किसी दूसरेका अपमान करना अपना ही अपमान है। जिसे लोग दूसरेका अपमान करनेवाला समझते हैं, वह सबसे पहले अपने ही आत्माका हनन या अपमान या अपने ही सदगणोंका मर्दन करचुकता है।
अवमन्ता जिसे अपना शत्र समझ लेता है उसे अपमान के द्वारा हानि पहुँचाना चाहता है। हानि शत्रको ही पहँचाई जाती है। क्योंकि मित्रों के अपमानका तो प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता इसलिये यह सूत्र शत्रुके हैं। अपमानका निषेध कर रहा है । इसपर विचारना यह है कि शत्रुको हानि पहुँचाना तो अनिवार्य कर्तव्य है। क्योंकि उसे हानि न पहुँचानेसे उसके शत्रताचरणको प्रोत्साहन मिळजाता है। शत्रुके हाथों हानि उठाना या उसके शत्रुताचरणमें सहयोग देना एक ही बात है। क्योंकि शत्रुका विरोध न करना निर्बुद्धिता है, इसलिये इस सूत्रका मभिप्राय अपमान न करनेका उपदेश देकर उसका विरोध ही छुडवा देना संभव नहीं है । भव. सर मिलनेपर शत्रको मिटा दालना ही उसके साथ उचित बर्ताव माना जाता है । इतनेपर भी उसका अपमान करनेसे विरत रहने को कहना अवश्य हो अपना कोई गंभीर अभिप्राय रखता है। निश्चय ही मार्य चाणक्य जैसे मतिमान पत्रकार किती विशेष प्रकारका अपमान करनेसे विरत रहनेको नीति के अनुकूल समझकर इसका उपदेश दे रहे हैं । ___ महामति सत्रकार अपनी भानुभविक चक्षुसे स्पष्ट देख रहे हैं किखोखले, तर्जन, गर्जन या अपशब्दात्मक अपमानकारी व्यवहारसे शवकी कोई हानि न होकर क्षत्रमन्ताका अपनी ही हानि होती हैं। इसी दृष्टिले वे अपमानका निषेध कर रहे हैं। किसी भी निषेधात्मक उपदेशको तद ही कोई