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चाणक्यसूत्राणि
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क्षुधाकी निवृत्ति केवल अन्नसे होती है । इसलिये राजालोग अपने राष्ट्रको धान्यसंपञ्च बनाये रखनेमें कोई बात उठा न रक्खें । कूप, पोखर, कुल्या, नाल, बांध आदि रूपों में सिंचनका प्रबन्ध करके राष्ट्रमें अन्नोत्पादन पर पूरा बल लगायें ।
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( राज्यसंस्थाका सबसे बडा शत्रु )
न क्षुधासमः शत्रुः ॥ २७७ ॥
राज्यका अन्नाभावजनित दुर्भिक्ष या अपरितृप्त सुधाके समान कोई शत्रु नहीं है 1
भुक्षितः किं न करोति पापम् ।
भूखा क्या पाप नहीं करता के अनुसार अन्न न पासकनेवाली जनता पारस्परिक लुंठन आदि अशान्ति उत्पन्न होना अवश्यम्भावी होजाता है। इसलिए राजालोग राज्य में क्षुधाका हाहाकार न होने देनेके लिये सह उपायोंका अबलम्बन करें। शत्रु तो धनादिका ही अपहरण करता है, क्षुधा तो शरीर, इन्द्रिय तथा प्राणतक हरण कर लेती है । इसलिए राजाको क्षुन्निवृत्ति के लिए अन्नोत्पनिसें प्रजाकी भरपूर सहायता करनी चाहिये । महाभारत में कहा है
वासुदेव जरा कष्टं कष्टं धनविपर्ययः । पुत्रशोकस्ततः कष्टं कष्टात् कष्टतरं क्षुधा ॥
वृद्धावस्था भी कष्ट है, धननाश भी कष्ट है, पुत्रशोक भी कए है परन्तु क्षुधा सब कष्टोंसे बड़ा कष्ट है ।
( निकम्मोंका भूखों मरना निश्चित ) अकृतेर्नियता क्षुत् ॥ २७८ ॥
अकर्मण्य निकम्मे आलसी मानवका भूखों मरना अवश्यंभावी होता है ।