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इन्द्रिय दुरुपयोग के दुष्परिणाम
विवरण - कर्मप्रवण लोग अपने पुरुषार्थसे धनधान्यादि पाकर अपनी और दूसरोंकी क्षुधा मिटा देते हैं। किसी राष्ट्रमें लोगोंका भूर्खो मरना उसके लिये महा अभिशाप है । इसलिए राजा लोग भूख से मरनेका प्रसंग न माने देनेके लिये बेकारीकी उत्पत्ति और वृद्धि न होने दें तथा उसे बल. पूर्वक रोकें । धनी या निर्धन किसीको भी कर्मद्दीन (खाली) रहना वैधानिक
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अपराध माना जाना चाहिये और समस्त प्रजाको जीविकासे संपन्न बनाकर रखना चाहिये । श्रम सबके ही लिये अपरिहार्य होना चाहिये । जब तक मनुष्य आलस्य त्यागकर सत्यानुमोदित जीवनधारण के लिये आवश्यक उद्योग नहीं करेगा तब तक क्षुबाधा नहीं हटेगी ।
पाठान्तर--- अकृतेर्नियता क्षुद्वाधा । अकर्मण्यको शुधाकी बाधा अनिवार्य है ।
( क्षुधाकी विकरालता ) नास्त्यभयं क्षुधितस्य ।। २७९ ।। पीडितके लिये अभक्ष्य कुछ नहीं रहता ।
विवरण- बुभुक्षित लोग घास, पात, वृक्षोंकी छाल, मिट्टी, नरमांस
आदि अमानवोचित आहार करनेपर उतर आते हैं ।
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अधा भूख संसारका सबसे बड़ा कष्ट है । राजा लोग करता इस डरसे अपने देशको अन्नसम्पन्न बनाये रखें ।
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कष्टात् कष्टतरं
भूखा क्या नहीं
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( इन्द्रियोंके दुरुपयोगका दुष्परिणाम
इन्द्रियाणि जरावशे कुर्वन्ति ॥ २८० ॥
इन्द्रियोंका मर्यादाहीन उपयोग मनुष्यको समय से पहले वार्धक्य के अधीन करदेता है ।
विवरण - इन्द्रियाधीनता ही वार्धक्य है । इन्द्रियोंपर प्रभुता मनुव्यका अक्षय यौवन है | ज्ञानी मानवों के जीवनों में वार्धक्य नामसे दूषित