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चाणक्यसूत्राणि
अनुरसाइ, नपुंसकता या असत्यको दासता जैसी जीवन्मृत अवस्था नहीं रहा करती । ज्ञानीका यौवन उसके धर्मकी विशेषता न होकर उसके मनका धर्म होता है | ज्ञानोत्लाहरूपिणी कर्मवीरता ही ज्ञानीका अटल रूपयौवन होता है । इन्द्रियां जीवनानुकूल तत्वका संग्रह करने तथा जीवनविरोधी तत्वों से अलग रहने के लिये बनी हैं। मनुष्य की जीवनेच्छा इन्द्रियोंके रूपमें व्यक्त हुई है । जीवनधारणमें ही इन्द्रियों का सदुपयोग होता है । अवैध भोग इन्द्रियोंका दुरुपयोग है। अवैध भोग ही मनुष्यको अकालवार्धक्य के अधीन कर देता है। मनुष्य को अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखकर जीवनपर विजय पाकर रहना चाहिए | इस विराट् प्रकृतिमेंसे जो थोडीसी प्रकृति मनुष्यको प्रकृतिका योग्य भबन्धक और विजेता बनकर आत्मप्रसाद लाभ करने के लिये मिली है इन्द्रियां भी उसी प्रकृतिका एक भाग हैं। दो प्रकार के मनुष्य होते हैं एक वे जो अपनी प्रकृतिपर अपना वश रखते हैं । दूसरे के जो अपनी प्रकृतिकी अधीनता में उसके दास बनकर रहते हैं । या तो 'मनुष्य अपनी शक्तियों का स्वामी बनकर रहे या कंपनी शक्तियोंकी दासता स्वीकार करके रहे । संसार में जितने महापुरुष आते हैं ये सब अपनी प्रकृतिपर अप पूर्णाधिपत्य रखते हैं । वे जैसा चाहते हैं उनकी प्रकृतिको उन्हींकी इच्छाकी अनुचारिणी बनकर रहना पडता है । संसारमें जितने महत्वहीन लोग होत हैं वे सब अपनी शक्तियोंके दास बनकर रहते हैं । इन्द्रियो भी मनुष्यकी शक्ति हैं । वे यदि उच्छृंखल होकर रहें तो उनका दाम मानव अपनेको वार्धक्यको सौंपकर दुःख भोगता है ।
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जीवेम शरदः शतम् । अदीनाः स्याम शरदः शतम् ॥
हम सौ वर्ष जिये और सौ वर्ष हमें अपने जीवन में दूसरोंसे व्यक्तिगत सेवा लेनी न पडेका महाघोष इन्द्रियोंपर पूर्ण विजय पाये रहने से ही पूर्ण होना संभव है । इसलिए जो लोग स्वस्थ कर्मक्षम जीवन पाना चाहें, के इन्द्रियविजयी होकर रहें ।