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सत्यक पोछ चलो
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जननारायणको झकझोर कर जगा डालना चाहिये और उसे असुरराजके विरोध खडा कर देना चाहिये। प्रसन्न करनेके अभिप्रायसे बोला अहितकारी वचन मनिवार्य रूपसे मिथ्या होता है। इस प्रकारका वचन न कहने में मनुष्य का अपना कल्याण है।
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् । प्रियं च नानतं बयादेष धर्मः सनातनः ॥ मनुष्य सत्यवचन कहे परन्तु उसीसे कहे जिसे यह जान ले कि इसे सत्यवचन प्रिय भी लगेगा और ग्राह्य भी लगेगा। (दूसरे शब्दों में ऊपर भूमिमें अपने सत्यका वपन न करे । जिसे सत्य अप्रिय लगता हो उससे सत्य कहकर उपसे वाक्कलह मोल न ले ) जिस श्रोताको मिथ्या सिद्धान्त. हान अमानवोचित वचन प्रिय लगता हो उसे प्रसन्न करने की निबल भावनाके वशीभूत होकर उससे मिथ्या वचन न कहे। यह सतर्कता ही सत्यभाषणके संबन्धका सनातन धर्म या सत्यभाषणसंवन्धी सतर्कता है।
( व्यक्तित्व के पोछे न चलकर सत्यके पीछे चलो )
बहुजनविरुद्धमेकं नानुवर्तेत ।। ४३२ ।। बहुजनहितके विरुद्ध एकका अथात् किसीके व्यक्तित्वका अनु. गमन न करे।
विवरण--- मनुष्य अनेक (समाज ) मार एक व्यक्तित्व ) मेसे त्याज्य ग्राह्य की समस्या उपस्थित होनेपर एक अर्थात् व्यक्तित्व के पोछ अंधा होकर चलने की प्रवृत्तिको तो त्याग दे और अपनी स्वतंत्र विचारबुद्धिको काममें लाकर उसीसे अपना तात्कालिक कर्तव्य निश्चय करे । अर्थात् दलमिश्रित न हो क्योंकि दल व्यक्तिस्वानुगामी होता है। यदि मनुष्य ऐसे समय अपने स्वतंत्र विचाराधिकारको तिलांजलि देकर बहुजन अर्थात् समाजविरोधी एक व्यक्तिके व्यक्तित्वका अन्धानुगमन करता है तो उसका मात्मकल्याण नहीं होता। सर्वावस्थामें समाज-हितको ही ध्येय रखना चाहिए।