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चाणक्यसूत्राणि
जैसे मृगराज के मनमें यह चिन्ता कभी नहीं आती कि मैं अकेला असहाय, कृश या सामग्रीहीन हूं। इसी प्रकार ज्ञानी भी कभी अकेला नहीं है । उसके साथ उसका आराध्यदेव वह सत्यनारायण सदा ही लगा रहता है जो सदा उसकी पीठपर अनुमोदनका हाथ रक्खे रहता है। यदि समस्त देश आत्मद्रोही, सत्यद्रोही सिद्धान्तविरुद्धगामी हो जाय तो ज्ञानी मानव जनपदको त्यागकर सत्य के पथपर अवेला चलकर असत्यविरोधी संग्रामशील जीवनयात्रा करे |
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ये चारों सूत्र यह कहना चाहते हैं कि मनुष्य या समाजके साथ अपने त्याज्य ग्राह्यकी कसौटी, शान्ति और न्याय ही होनी चाहिये । मनुष्य सर्वावस्था में न्याय तथा शान्तिको अपनाये रहे । भले ही ऐसा करने से उसे पुत्र, कुटुम्ब, ग्राम, देश यहांतक सारे संसारको त्याग देना पडे और अवेला रद्दकर अन्यायी संसार के साथ लडकर सत्यार्थ बलि होजाना पडे ।
मनुष्यता ही शान्ति तथा न्यायकी संरक्षक है | मनुष्यको किसी भी भवस्था में मनुष्यताको न त्यागनेकी प्रबल प्रेरणा देना ही इन सूत्रोंका अभिप्राय है । मनीषी सूत्रकारने जनपद, ग्राम, कुटुम्ब और पुत्र सबको त्याज्य कोटि में रखकर मनुष्यकी मनुष्यताको ही अस्याज्य समझाया है ।
( गुणवान् पुत्रके लाभकी प्रशंसा )
अतिलाभः
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पुत्रलाभः || ३८५ ॥
पुत्रलाभ सर्वश्रेष्ठ लाभ है ।
विवरण- गुणी पुत्रका पिता होना ही सन्तानवान् होना है। निर्गुण पुत्रका पिता होना पिताकी अयोग्यता भी हैं और साथ ही उसकी पुत्रहीनता भी है । निर्गुण अयोग्य पुत्र तो परिवारका ही नहीं राष्ट्रका भी शत्रु है । राष्ट्र - शत्रु, समाज - शत्रु, परिवार शत्रु पुत्रका पालनपोषण करना, राष्ट्रद्रोह, समाजद्रोह, परिवारद्रोह तथा आत्मद्रोह है। सत्पुत्र पाजाना पिताका असाधारण लाभ या सौभाग्य है । सत्पुत्र या गुणी पुत्र पाजाना ही