________________
हितैषिता ही बन्धुता
कार्याकार्यविवेक न रखनेवाले उन्मार्गगामी माता-पिता मादि गुरुओंका भी परित्याग अर्थात् निर्वासन कर दिया जाता है ।
स्वहस्तोऽपि विषदिग्धश्छेद्यः॥ २४८ ॥ जैसे आत्मरक्षाके नामपर विषाक्त स्वहस्त भी छेद्य होजाता है इसीप्रकार विनाश करनेपर उतर आये हुए प्रियसे प्रिय सम्बन्धीका भी त्याग करके आत्मरक्षा करनी चाहिये ।
(हितैषिता ही बन्धुता ) परोऽपि च हितो बन्धुः ।। २४९ ॥ संसारी संबंध न रखनेवाला भी यदि कोई हितकारी अर्थात् अनुकूल व्यवहार करनेवाला व्यक्ति सत्यनिष्ठ धार्मिक हो ता उसे बन्धु समझकर अपनाना चाहिये।
विवरण-धार्मिक मनुष्यका संपूर्ण जीवन समाज-हितमें समर्पित होने के कारणका व्यक्तिमात्रके लिये हितकारी है । धार्मिक व्यक्ति यदि किसीसे शत्रता भी करता है तो वह अधर्मका ही विरोध करता है । वह अधर्मका विरोध करके संसारको धर्मका ही मार्ग दिखाना चाहता है। उसकी इस मधर्म-विरोधरूपी समाज-सेवासे समाजका प्रत्येक सदस्य आततायीके माक्रमणसे सुरक्षा पाता है। इसलिए वह समाजके प्रत्येक सदस्यका परममित्र होता है । कहा जाता है कि विवेकी शत्रु भी हितकारी तथा मूढ मित्र भी महितकारी होता है । अर्थात् विवेकी व्यक्तिका परिस्थिति के अनुसार शता जैसा दीखनेवाला बर्ताव भी वास्तवमें मित्रता ही होता है और मूढ भित्र सदा शत्रु जैसा त्याज्य होता है। . परोऽपि हितवान् बन्धः बन्धुरप्यहितः परः।
अहितो देहजो व्याधिः हितमारण्यमौषधम् ॥ देखने में शत्रु जैसा बर्ताव करनेवाला भी यदि हितकारी हो तो वह बन्धु है, बन्धु समझकर अपनाया हुमा व्यनि. भी यदि अहितकारी हो तो