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चाणक्यसूत्राणि
जानेसे रोकना सावधान जाग्रत राष्ट्रका काम है । यह तब ही होसकता है जब कि राष्ट्रका प्रत्येक सदस्य एकमात्र राष्ट्रको ही अपना स्वजन मानकर एक दूसरेके साथ स्वार्थगन्धहीन बर्ताव करना सीखे। ऐसा करनेपर ही राष्ट्रमें धर्मराज्यकी स्थापना होना संभव है। __ मनुष्य इस विश्वपरिवारका एक पारिवारिक है। मनुष्य विश्वपरिवारका पारिवारिक बनने की कला सीखने के लिये ही पारिवारिक सम्बन्धोंमें भव. तीर्ण हुभा है। पारिवारिक स्वजन विश्वपारिवारिकता सीखने के क्षेत्रमात्र हैं। मनुष्यको स्वजनोंको परमार्थदर्शनका क्षेत्र बनाकर रखना चाहिये। न कि उन्हें अपने स्वार्थ-साधनकी माखेट-भूमि बनालेना चाहिये। स्वजनोंसे ऐसा दिव्य व्यवहार होना चाहिये कि उनकी भी तत्वज्ञान की
आँखें खुल जायें और अपने में भी किसी प्रकारका भ्रम या आसक्ति शेष न रहे । स्वजनोंसे कामना या स्वार्थका सम्बन्ध रखनेपर उनकी घृणाका पात्र बनजाना अनिवार्य है, जिसका अवश्यंभावी परिणाम उभयपक्षका कपटी बनजाना होता है। स्वार्थपरताके विवाद तथा सम्बन्ध-विच्छेद दो अनिवार्य परिणाम हैं।
( दुष्टोंसे सम्बन्ध हानिकारक )
मातापि दुष्टा त्याज्या ॥ २४७ ।। दुष्ट होनपर माता भी त्याज्य होती है। शत्रुता करनेवाली मातासे भी दूर रहना चाहिये, औरोंका तो कहना ही क्या ?
विवरण- पुत्र के साथ शत्रुता करनेवाली माता मातृत्व के अधिकारसे वंचित होकर पुत्रादिनी सर्पिणी जैसी दंडनीया बन जाती है । अपि शब्दका अभिप्राय यह है कि दूसरे अपकारियोंके त्यागमें तो किसी प्रकारकी शंकाको भवसर ही नहीं है।
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः । उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते ॥