________________
२३४
चाणक्यसूत्राणि
जितना धन होनेपर भी सदा अभावग्रस्त रखती, भप्रामाणिक गर्हित उपायोंसे भी अपनेको बुझवाना चाहती तथा मनुष्यको सदा दुःखी बनाये रहती है । धनतृष्णाके चक्करमें पडकर दुःखी जीवन व्यतीत करना जीव. नके सच्चे मानन्दसे वंचित रहकर जीवित रहते हुए भी मृतवत् होजाना है। जिन धनी लोगोंमें मानवता अर्थात् समाजके प्रति कर्तव्यशीलताने विकास नहीं पाया उनका धन उन्हें मिला हुमा एक अभिशाप है । समा. जके सहयोगसे धनोपार्जन करके उसमें से समाजके अभ्युत्थानमें अर्पण न करनेवाले स्वार्थी लोग प्रभुको लूटनेवाले अकृतज्ञ तस्कर ( नमकहराम ) भृत्यों के समान समाजके व्याधिग्रस्त भाग हैं । पाठान्तर --- दारिद्रयं खलु पुरुषस्य जीवितमरणम् । दरिद्रता जीवनको ही मरण जैसा भकार्यकारी बनाडालनेवाली अवस्था
( अर्थ का महत्व ) विरूपोऽर्थवान् सुरूपः ।। २५८ ॥ अर्थश्रीसे शोभित दानी पुरुष सौन्दर्यहीन होनेपर भी रुचि. कर माना जाने लगता ह ।।
विवरण- धन का सदुपयोग करनेवाला ही सच्चा धनवान् या अर्थवान् है । धनका सदुपयोग करनेवाले का दैहिक सौन्दर्य उपेक्षित होकर उसका हार्दिक सौन्दर्य ही ज्ञानीसमाज में आहत होने लगता है । धनवान् दानीका कुरूप भी याचकोंके मनोंको मोहित करनेवाला होजाता है । रूपलावण्य. होन देहवाले दानी धनवानों की कुरूपता उनके धनके सदुपयोगसे इस दृष्टि से दूर होजाती और उन्हें सुरूप बनादती है कि उनके धनसे उपकृत होनेवाले याचकलोग उनके दर्शनोंसे कृतार्थ होते और सदा उनके दर्शन के प्यासे बने रहते हैं। इनकी दानप्रवृत्ति ही उन्हें सुरूप बना देती है । उनके पांचभौतिक देहकी कुरूपता उनकी दानशीलतामें छिपकर दूर होजाती है ।