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अर्थका महत्व
उनकी अपने धनका सदुपयोग करने की प्रवृत्ति ही उनकी सुरूपता होजाती है । परन्तु ध्यान रहे कि यह सुरूपता दानी धनियों को ही प्राप्त होती है। कृपण विरूपोंको ऐसी गुणार्जित सुरूपता प्राप्त नहीं होती। पाठान्तर-विरूपोऽप्यर्थवान सुरूपः (सुपुरुषः)।
भसुन्दर भी अर्थवान् धनार्थियोंके मुखसे सुरूप ( या सुपुरुष ) कहाने लगता है।
अदातारमप्यर्थवन्तमर्थिनो न त्यजन्ति ।। २५९ ।। धनार्थी लोग कृपण धनवानको भी अपनी याचनाका पात्र या धनतृष्णाका आखेट बनानेसे नहीं चूकते।
विवरण---- याचक लोग उसकी दानशक्तिको उत्तेजित करने के लिये उसके सामने प्रार्थी बने ही रहते हैं। वे धनी होनेसे दानकी संभावना देखकर उससे याचना करते ही चले जाते हैं।
धनकी दान, भोग तथा नाश तीन अवस्था हैं । सत्पात्रको दान देना धनको सुरक्षित करने की सर्वोत्तम विधि है।
उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम् । उपार्जित धनों का समाजसेवामें दान ही उनकी रक्षाका पूर्ण प्रवन्ध है । दान दाताका नित्यसाथी बन जाता है। यदि हमारे धन का उपयोग हमारे समाजको सद्गुणी सम्पन्न और सुखी बनाने में हो जायगा तो यह हमारे धनका सर्वोत्तम रक्षाविधान होगा। धनका इससे उत्तम कोई उपयोग संभव नहीं है कि वह अपने प्रतिपालक समाजको आदर्शसमाज बनाने के काम आये । धन्य हैं वे लोग जिनकी उपार्जित धनशक्ति अपने समाज के कल्याणमें नियुक्त होती है।।
सत्पात्रमें दान करनेवाला दाता बनना ही धनवान्की बुद्धिमत्ता है । सत्पात्र में दान करनेवाला धनके सदुपयोगसे आत्मप्रसाद लाभ करता है। कृपणका धन अपात्रके हाथों में बलात् पहुंचकर समाजके अकल्याण में लगकर