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________________ ५१६ चाणक्यसूत्राणि वह अपने पापको अपने भीतर बैठे हुए पुण्य-पापेक्षिता मात्ममुनिसे छिपा नहीं सकता। पापको जब तक समूल उखाड नहीं फेंका जाता तब तक वह पापीका तोदन करना नहीं छोड़ता। पापीका माचरण ही उसे अपने हृदय तथा समाजमें निन्दित घृणित स्थान दे देता है । अपनी तथा समाजकी दृष्टि में घृणित हो जाना भी पापीका दण्ड पा जाना होता है। यदि कभी समाजसे छिपाकर एक दो गर्हित पाप करना संभव हो भी जाय तो भी पाप स्वभाव बना लेनेवाले मनुष्यका उन पापोंसे बचे रहना असंभव है जो स्वभाववश उसके जीवन में प्रकट हुए विना नहीं रह सकते । __ पापीका देह पापके बोझको ढोता रहता है । यह देह पापके बोझको अपने ऊपर ढोकर अपने देहीकी ओरसे निन्दित और लाच्छित होता रहता है । जगत्से चाहे पाप छिप जांय परन्तु मनुष्य जिस देहसे पाप करता है उससे तो नहीं छिपाया जा सकता । जैसे छुरेसे को हुई गुप्त हत्याका पाप छुरेसे नहीं छिपाया जा सकता और वही रक्तरंजित छुरा संयोगवश दण्ड. दाताके हाथों में पहुँचकर हत्यारेकी हत्याके साधनके रूपमें प्रमाणित होकर ससे अपराधी सिद्ध करके दण्डित करा देता है, इसी प्रकार पापीके पापका साधन देह देहीरूपी पटल ( अव्यर्थ ) दण्डदाताके सम्मुख प्रतिक्षण अपराधोंकी साक्षी देता रहकर पापी मनको पात्मग्लानि नामक दंडसे दंडित करता रहता है । जो मनुष्य पापको अपनी जीवन-यात्राके साधन के रूप में अपनालेता है पाप उसका शीतांगारके कृष्णवर्णके समान अत्याज्य स्वभाव बन जाता है । जिस मूतको पवित्रताकी पहचान नहीं है, जो भविवेककी अपवित्रतामें ही सुख मान रहा है, सोचिये तो सही कि वह क्यों अपने पापसे मिलनेवाले सुखको त्यागेगा ? और क्यों पुण्य करनेका दुःख मोल लेगा? पापाचरण मनुष्य का आध्यात्मिक आत्मघात है। पापीका पाप उसका भनन्त मानसिक दुःख और अन्तःशल्य बन जाता है। पापजनित दुःख बन्धनमें उलझकर कराहते तथा माह भरते रहना ही पापीका अपने पाप रूपको अपने सामने प्रकट रखना है।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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