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पाप पापीसे स्वीकार करना
आइये अब इसपर दूसरी दृष्टिसे विचार करें- सब जानते हैं कि पाप समाजकी दृष्टिको बचाकर किया जाता है । परन्तु वह जिस समाजकी दृष्टि बचाकर किया जाता उसीको अपना आखेट भी बनाता | जो पाप सशक्त समाजकी दृष्टिसे बचाकर किया जाता है वही पाप अशक्त समा जको अपना आखेट बनाता है । पापाचरणकी कोई व्यक्तिगत घटना चाहे कभी समाज के सामने न भी भा सकें तो भी पापीका समाज कल्याणघाती पापी स्वभाव समाजसे छिपा नहीं रहता । समाज प्रच्छन्न पापियोंको पापी समझ ही जाता है । पापीकी पहुंचाई हुई हानि तथा उसके हानिकारक प्रभावको प्रत्यक्ष देखनेवाला समाज उसे दण्डित करनेका यथाशक्ति प्रयत्न भी करता है । कभी कभी दण्डसे बच जानेपर भी पापी अपने आचरणों में समाजकी घृणाका पात्र तो अनिवार्य रूपसे बन जाता है ।
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समाजकी घृणाका पात्र हो जाना कुछ न्यून दण्ड नहीं है । पापीका पाप चाहे उसे दण्ड दिलवाने में अपराध ( चूक ) कर जाये परन्तु उसका पापी स्वभाव उसे समाजसे यह अनिवार्य दण्ड दिलाये बिना नहीं रहता । पाप करनेवाला पापी चाहे अपने पापकी घटनाको समाजकी दृष्टिमें न आने देने में पूर्ण सफल हो जाय, परन्तु वह अपने चित्तकी पाप-प्रेरक महिनताको अपने पापी स्वभावके रूपमें प्रकट होते रहने से नहीं रोक सकता । मनुष्य छिपकर पाप भी करता रहे और अपने स्वभावको पापमुक्त संतोंवाला भी रख सके यह किसी भी प्रकार संभव नहीं है । यह निश्चित है कि मलिन स्वभाववालेका हृदय पहले से ही मलिन हो चुका होता है । मलिन हृदयवालेके आचरणोंका मलिन होना अनिवार्य होता है ।
निंदित नहीं रह सकता !
पापी मनुष्य अपने भीतर बाहर कहीं भी पापीको बाह्य में अनिंदित रहने की कोई स्थिति नहीं है। मनुष्यकी पाप वासना भस्माच्छन्न भनिके समान पापीके हृदय में सुलगती रहती और अपनी पापमग्नावस्थाको अपनी आंखोंके सामने लाती ही रहती है । मनुष्य सारे संसारकी आंखों में धूल झोंकनेका दुःसाहस तो कर सकता है परन्तु