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चाणक्यसूत्राणि
सुदृष्टान्त उपस्थित करके लोगोंको सन्मार्ग पर चलनेके लिये उत्साहित करना चाहिये । उसे राष्ट्रीय कर्तव्यपालनमें प्रत्येक क्षण सचेत रहना चाहिये। विश्वासघाती शत्रुओं की चेष्टाओंको व्यर्थ करने के लिये पूरा सावधान रहना चाहिये । प्रजापर अनुचित करभार नहीं लादना चाहिये । प्रजा तथा राजकर्मचारियों के समस्त आचरण विश्वस्त गप्तचरों के द्वारा देखे भाले पडताले जाने चाहिये । प्रजामें गृहकलह नहीं होने देना चाहिये । प्रजापर राजकर्म. चारियों तथा राजसभाके सदस्यों के अत्याचारों को मिटाने तथा राजविद्रोहका दमन करने के लिये प्रभावशाली प्रबन्ध रखना चाहिये। अपने राज्यकी रक्षाका सुदृढ प्रबन्ध करके पडोसी शत्रुराज्यको अपने वश में रखना भी राजाका राष्ट्रीय कर्तव्य है । शत्रुओं के साथ मिलकर रहना या उन्हें अपना सहयोगी बनाना नीतिहीन आचरण है। चाणक्यकी यह नीति प्रत्येक काल में सब देशोंके लिये मान्य है। भारतकी यही राजनीति है। भारतकी यह राजनीति वैदिक युगकी प्राचीनताका ठीक ही अभिमान करती है।
इसलिये करता है कि चाणक्यने श्रुति स्मृति पुराणों में दण्डनीतिके नामसे उल्लिखित राजनीतिको अपने अर्थशास्त्रमें संकलित करके बृहस्पति, भरद्वाज, विशालाक्ष, वातव्याधि मादि आचार्योंके सिद्धान्तोंको भी उसमें संकलित किया है। उन्होंने समाजसंगठनके आदर्श को ही मनुष्यमात्रके धार्मिक जीवनका उत्स (मृल, झरना) मानकर साधु राजाको उस आदर्शका संरक्षक बनाया है । अपने राजसमें जितेन्द्रियताको रक्षा करना ही राजाका मुख्य कर्तव्य स्वीकार किया है। सभासदों, पुरोहितों, मन्त्रियों, सेनापतियों तथा दृत आदिके चरित्रोंको जितेन्द्रिय ताकी कसौटी पर कसने के लिये तीक्ष्ण निरीक्षण करते रहना राजाका अनिवार्य कर्तव्य बताया है। यही उनकी राजनीतिकी वेदानुकूलता है । जितेन्द्रियता ही वेदका सर्वस्व है।
राजशक्तिको समाजकी अनिवार्य आवश्यकता बताया है। समाजमें राज. शक्ति न रहने से समाजकी मानवोचित कर्मण्यता नष्ट हो जाती और मालस्य तथा अपवित्रता समाजके देह और आत्मा दोनों को नष्टभ्रष्ट कर डालते हैं।