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________________ २०२ चाणक्यसूत्राणि विवरण - अजीर्णभोजन प्राणोंतकको लेबैठता है 1 आहारः प्रीणनः सद्यो बलकृद्देहधारणः । स्मृत्यायुः शक्तिवर्णैजः सत्वशोभाविवर्धनः ॥ जीर्णभोजन प्रसन्नताजनक, बलवर्धक, देहधारक, स्मृति, आयु, शक्ति, वर्ण, ओज, सत्व तथा कान्तिको बढानेवाला है । पाठान्तर- अजीर्णे भोजनं विषम् । अजीर्ण में भोजन करना विषतुल्य मारक होजाता है । ( व्याधिकी हानिकारकता ) शत्रोरपि विशिष्यते व्याधिः ।। २२३ ॥ व्याधि शत्रु से भी अधिक हानिकारक होती है । विवरण - व्याधि शरीरपर आठों पहर आक्रमण करनेवाली होने से महाशत्रु है । शत्रु तो बाहर से आकर जीवन तथा जीवन-साधनों पर आक्र मण करता है । परन्तु व्याधि देहस्थ होकर प्राण, धन, देव आदि सबका संहार करडालती है । " मृत्कल्पा हि रोगिणः " रोगी लोग मृततुल्य होते हैं। वृद्ध चाणक्य ने कहा है- " न च व्याधिसमो रिपुः " व्याधि - जैसा शत्रु नहीं है । हित, परिमित, मेध्य ( अभिपर डालनेसे दुर्गन्धि उत्पन्न न करनेवाला ) तथा यथाकाल भोजन, स्नान, जलपान, इन्द्रियसंयम, सदाचार आदि स्वास्थ्य के कारण हैं । ( दानकी मात्राका आधार ) दानं निधानमनुगामि ॥ २२४ ॥ दान अपनी घनशक्ति के अनुसार होना चाहिये । विवरण - मनुष्य पार्थिव धन पास होनेमात्र से दाता नहीं बनजाता | दयालु हृदय ही मनुष्यको दाता बनानेवाला देवी धन है । दानपात्र सामने जानेपर दाताको अपना संपूर्ण हृदय अर्थात् पूरा सहयोग देनेके लिये विवश
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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