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.दानकी मात्राका आधार
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होकर दानपात्रके प्रति मात्मसमर्पण करदेना पड़ता है। उस समय दाताको अपनी धनशक्तिका दान में उपयोग करना ही पड़ता है। उस समय उसे अपनी सीमित धनशक्तिमें सीमित रहकर दान करना पड़ता है । उस समय वह अपनी सीमित धनशक्तिका दानमें जो उपयोग करता है वह हार्दिक होता है। सहानुभूतिसम्पलता या सहृदयता ही मनुष्य की दानप्रेरकनिधि है। सूत्र कहना चाहता है कि दान भय, दबाव या स्वार्थसे न होकर हार्दिकताके साथ हो इसीमें मानवका कल्याण है । ___ दान मनुष्य की भावनात्मक निधिके मनपार होना चाहिये। उससे न्यून नहीं । मनुष्यकी भावनानिधि धनके योग्य अधिकारीको देखते ही पसीज जाती और देनेका संकल्प करलेती है । मनुष्यको उस दान संकल्पके अनुसार योग्य पात्रको दान करना चाहिये । अपने उपजीव्य समाजके अभ्युस्थानमें सहयोग करना मनुष्यका स्वहितकारी कर्तव्य है । मनुष्य दानके योग्य पात्रोंको अपने उपजीव्य समाजके अभावग्रस्त अंगके रूपमें देखे भोर स्वयं उसकी अभावग्रस्ततामें सम्मिलित होकर उनका दुःख बांटे । वह उस दुःखके दूर करने में अपने संपूर्ण भौतिक सामथ्र्यको सौंपकर सत्यकी सेवाका मानन्द ले । यही दानका यथाथ रूप है।
समस्त संसारके ईश्वर सत्य के हाथों में आत्मसमर्पण करदेना ही दान है। यह दान कोई दुर्लभ दान नहीं है। कोई भी विवेकी इस दानमें अशक्त नहीं होसकता । जो अपनेको ऐसे दानमें असमर्थ देखता है निश्चय है कि वह असत्यका दास है । ऐसा मनुष्य दान करता दीखने पर भी दानी नहीं होता । वह अपात्रको धन देकर असत्यकी ही दासता करता है। सत्यके हाथों में मास्मदान करनेवाल। दानवीर आदर्श मानव अपने को कभी भी दाननामक मानवधर्म पालने में असमर्थ नहीं पाता। उसकी दान-प्रवृत्ति सत्यकी सेवा कदापि संकुचित नहीं होती। वह दानके योग्य पात्रके साथ मुक्तहस्त होकर सहानुभूति दिखानेमें पीछे नहीं रहता और सत्यके साथ सम्मिलित होने में अमृतास्वाद लेकर कृतार्थ होजाता है ।