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________________ १७४ चाणक्यसूत्राणि विवरण- राज्यको संपूर्ण राज्यसंस्था तथा गज्यभरका प्रजा-वर्ग विजिगीषुका स्वजन है । राज्यभरमें कहीं भी दुराचारको प्रोत्साहन या प्रश्रय न मिलना ही राज्यको सुव्यवस्था है। राजा या राज्यसंस्थाका चरित्र ही प्रजामें प्रतिफलित होता है । राष्ट्रभरमें से दवृत्तको बहिष्कृत रखना ही राजाका धर्म, कर्म, पूजा, पाठ तथा श्रेष्ठ भगवदाराधन है। राजकीय लोगों के दराचारोंसे राज्य में पाप-वृद्धि तथा अपयश होता और राज्य संस्था सार्वजनिक समर्थनसे वंचित होकर निर्वल पट जाती है। कोई भी राज्य राजकीय लोगोंके भ्रष्टाचारके दुष्परिणामोंसे बच नहीं सकता। राज्याधिकारियों के दश्चरित्रका कुफल राज्यको भोगना ही होगा। इसलिये उन्हें दराचारसे रोकनेके कठोरतम उपाय अपनाये रहने में ही राज्यका कल्याण है। स्वजनावमानोऽपि मनस्विनां दुःखमावहति ॥ ११९ ।। दुश्चरित्रताके कारण हुआ स्वजनोंका अपमान विचारशील व्यक्तियोके दुःखका कारण होता है। विवरण- दुराचार के कारण हुए राजकीय लोगोंके अपमान विचारशील स्वाभिमानी कर्तव्यपरायण मनस्वी राजाओंके लिये असह्य दुःखदायी होते हैं । मनस्वी राजाके कर्मचारी, दुराचारी, भ्रष्टाचारी हों और राष्ट्र में मनीति तथा पापाचार बढा रहे हों तो उसे उनके दुराचारको तत्काल रोकना चाहिये । उसे उन्हें सुपथपर रखने में कोई बात उठा नहीं रखनी चाहिये । उसे अपने राज्याधिकारियोंके अपमान और अपशयको अपना ही अपमान और अपयश मानकर उन कारणोंको समूल उखाड़ फेंकना चाहिये । पाठान्तर-- स्वजनावमानो हि ... ... । ( एक कर्मचारी के पापसे संपूर्ण राजव्यवस्था दूषित ) एकांगदोषः पुरुषमवसादयति ।। २०० ॥ जैसे किसीका एक रोगी अंग उसके समस्त देहको अवसन्न तथा अनुपयोगी बनाडालता है, जैसे वह एक दूषित अंग समस्त देहके व्याधिग्रस्त होने का लक्षण होता है, इसी प्रकार
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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