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________________ राजाका कर्तव्य १७३ (शत्रुका स्वभाव) छिद्रप्रहारिणश्शत्रवः ॥१९६॥ शत्रु प्रतिपक्षीकी निर्बलतापर ही आक्रमण किया करते हैं। विवरण- इसलिये विजिगीषु लोग शत्रुओं की दृष्टि में बलवान बने रहें । शत्रु कभी भी प्रबल पक्षपर आक्रमण या प्रहार नहीं करते । आकमण सदा निर्बल असावधान त्रुटियुक्त पक्षपर ही होता है । पाठान्तर-छिद्रप्रहारिणो हि शत्रवः । (अधीन शत्रुका विश्वास मूढता) हस्तगतमपि शत्रु न विश्वसेत् ॥ १९७ ।। विजिगीषु राजा अपने वश आनके पश्चात् अपनी शत्रुताका संगोपन तथा मित्रत्वका प्रदर्शन करनेवाले शत्रका विश्वास न करे। विवरण- शत्रुको हाथमें पाकर उसे क्षमा करके प्रेमसे अपनाना वाहनेकी भ्रान्ति कभी न करनी चाहिये । विजेताके भयसे शत्रुकी ओरसे प्रेमका प्रस्ताव आना स्वाभाविक है । परन्तु जिसके प्रेमका सम्बन्ध होनेका कभी कोई हार्दिक कारण उपस्थित नहीं होसकता, उस शत्रुकी असहाय स्थिति प्रेमका कारण कदापि नहीं बन सकती। ऐसे शत्रुको अपनाकर उसे अपना सहायक मित्र बनालेनेकी दुराशा करना विषधर भुजंगको दुग्ध. पानसे निर्विष बनानेकी-सी ही भ्रान्ति है । शत्रुको तो मिटाकर ही निश्चिन्त होना संभव है । विजिगीषु के लिये शत्रु-पोषण किसी भी प्रकार और किसी भी दृष्टिसे समर्थनीय नहीं है। पाठान्तर- स्वहस्तगतमपि ..... । - ( राजकर्मचारियों के दुराचार रोकना राजाका म्वहितकारी कर्तव्य ) स्वजनस्य दुर्वृत्तं निवारयेत् ॥ १९८ ।। विजिगीषु राजा स्वपक्षके लोगों के दुराचार या गर्हित आच. रणको प्रबल उपायोंसे दूर करे।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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