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जितात्मताका लाभ
अपने साथ राज्यसत्ताको भी ले डूबते हैं। राजनीतिके आचार्य बृहस्पति कह गये हैं कि- “मात्मवान् राजा "- राजा लोग अच्छे शासक बननेके लिये प्रजापर शासन करने से भी पहले अपने ऊपर शासन करना सीखें। राजा या राज्याधिकारी लोग राजसत्ता हाथमें सिंभालने से पहिले अपने जीवनोंको बेद वेदान्तोंकी मूर्तिमती टीका तथा भाष्योंका रूप देकर रखें । राजकीय विभागों में जानेवाले लोग कान खोलकर सुन लें कि दुष्टनिग्रह और शिष्टपालन ही राज्य का मुख्य कर्तव्य है । सोचिये तो सही कि जो राजकर्मचारी अपनी ही दुष्ट अभिलाषामोंपर शासन नहीं कर सकता वह शासनदण्डका उचित प्रयोग कैसे कर सकता है ? जिससे अपना अकेला मन वशमें नहीं रखा जाता वह विशाल राष्ट्रको केसे वशमें रख सकता है ?
एकस्यैव हि योऽशक्तो मनसः सन्निवर्हणे।
महीं सागरपयेन्तां स कथ हावजष्यति ॥ जो सबसे पहले अपनी दुष्ट अभिलाधाओंपर शासन कर सकेगा वही प्रजाकी दुष्ट प्रवत्तियों को पकड और रोक सकेगा। जैसे अपनी सन्तानको सुधारना पिताके मात्मसुधारसे अलग वस्तु नहीं है इसी प्रकार प्रजापर शासन करना राजाके आत्मशासनसे अलग कोई वस्तु नहीं है। राज्याधि. कार संभालना बहुत बडा उत्तरदायित्व है। आदर्श मनुष्य ही राज्याधि. कार संभाल सकता है। राजा राज्य-संस्थारूपी तपोवनका कुलपति है। समस्त प्रजाके कल्याण अकल्याणसे सम्बन्ध रखने वाली राज्य जैसी सार्वजनिक संस्थांको अपने व्यक्तिगत क्षुद्र स्वार्थोंसे बिगाड डालना देशद्रोह तथा आरमनाश है। अपनेको बिना सुधारे राज्याधिकार संभाल बैठना मगारुडिक (सर्प विद्या न जाननेवाले ) का सांपोंसे खेलने जैसा भयंकर मनिष्ट कर डालनेवाला व्यापार है।
( जितात्मताका लाभ ) जितात्मा सर्वार्थः संयुज्येत ।। १० ॥ जितात्मा नीतिमान लोग समस्त संपत्तियोंसे संपन्न होकर रहे । विवरण- सपनेपर विजय पा चुकनेपर राज्यसंस्था में हाथ डालनेवाले.