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चाणक्यसूत्राणि
आत्मानमात्मना रक्षन् चरिष्यामि विशांपते ।
मैं अपने विज्ञानी विवेकी मनसे अपनी रोक-थाम करता हुआ राज्यव्यवहार चलाया करूंगा ।
( आत्मविजयी )
सम्पादितात्मा जितात्मा भवति ।। ९ ।।
शासकोचित सत्य व्यवहार करना सीख लेनेवाला ही जितेन्द्रिय हो सकता है । विवरणमनुष्य की सत्यनिष्ठा या कर्तव्यपरायणता ही उसकी जितारमता या जितेन्द्रियता होती है। मनुष्य के अन्तरात्माकी प्रसन्नता निर्मलता स्वच्छता या निष्कामता ही उसकी जितात्मता है । जितात्मा होना ही संसार विजय है । नीति तथा विज्ञानसे युक्त मानवको संपादितात्मा कहा गया है ! सत्य ही नीतिका सार या सर्वस्व है । सत्यके विना मनुष्यका आत्मविकास नहीं होता । सत्यदर्शनके विना समस्त प्रजावर्ग में राज्याधिकारियोंकी वह आत्मबुद्धि ( अर्थात् समस्त प्रजावर्गको अपना ही रूप देखनेकी वह उदात्त भावना) नहीं हो सकती जो एक अच्छा लोककल्याणी राज्य चलानेवाले राजाओं या राज्याधिकारियोंकी अनिवार्य आवश्यकता है 1 जितास्माका अर्थ सुपरिष्कृत मन तथा सुपरिष्कृत इन्द्रियोंवाला बनजाना है जितात्मा मानव न्यायान्यायविवेक करके अपनी क्षुद्र प्रवृत्तियोंको, विषकरे अपने गले में ही रोक रखनेवाले विषकण्ठ महादेव के समान, कभी न उभरने देनेके लिये अपने मानस में दाबकर बैठ जाता और स्वभावसे प्रजाका पूज्य, आदरणीय तथा श्रद्धेय बन जाता है । राजाको प्रजाकी दृष्टि में पूज्य बुद्धि मिलनेसे राजकाज अपने आप हल्का होता चला जाता है । तब राजाका आदर्श चरित्र ही प्रजापर शासन करने लगता है । यदि राजा लोग न्यायान्याय तथा कर्तव्याकर्तव्यका विवेक न रखकर केवल लोलुप होकर उत्तरदायित्वद्दीन मनसे राज्यशासन जैसे उत्तरदायित्वपूर्ण काममें हाथ डाल देते हैं, तो वे
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