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चाणक्यसुत्राणि
जितेन्द्रिय लोग जिस काम में हाथ डालते हैं उसे पूरा करके समस्त संपत्तियों से संपन्न हो जाते हैं । ऐश्वर्य और सिद्धियां जितेन्द्रियोंके पास मानेके लिये उतावली हो जाती हैं। वे लोग सामाजिक कार्योंको अपनी निर्लिप्त मानसिक स्थिति के सहारेसे पौरुषके साथ करने की योग्यता पा जाते हैं। इसीलिये आत्मविजय सम्पत्ति के भर्जनले पहला काम है । अजितात्मा लोग मनिवार्य रूपसे सत्कर्मों में उदासीन होते हैं। ऐसे कापुरुषोंका अनीतिपरायण होना अनिवार्य होता है। अनीतिपरायणता ही राज्य. तन्त्रकी असफलता है। आचार्य बृहस्पति ने भी कहा है- " गुणवतो राज्यम् "- राज्य में गुणी लोगोंका ही अधिकार है। जितेन्द्रियता ही राज्याधिकार की योग्यता या गुण है । राज्य करना केवल वेतनार्थी. उत्कोचजीवी, निर्गुण, उदरम्भरि भोजनभोगपरायण लोगोंका काम नहीं है । राज्य-संस्था तो सदगुणी लोगोंकी तपस्याका पवित्र तपोवन है। घटना. चक्रवश निर्गुणों को राज्याधिकार मिल जानेपर उनकी राज्य-संस्थाकी दुर्गति और प्रजामें असन्तोष, रोष तथा हाहाकार फैल जाना अनिवार्य हो जाता है । राजकीय गुणोंसे रहित लोगोंका राज्याधिकार तो एक प्रकारका लूटका टेका होता है। राजशक्तिका अयोग्य हाथों में भा जाना राष्ट्रका महान्
पाठान्तर- जितात्मा सवार्थस्लयुज्यत ।
(प्रजाको संपन्नता तथा राजभक्तिका कारण )
अर्थसंपत प्रकृतिसंपदं करोति ॥ ११॥ राजाओंकी अर्थसम्पत्तिसे प्रजाओके भी अर्थकी वृद्धि स्वभा. वसे हो जाती है।
विवरण- शासन की सुव्यवस्था राजा-प्रजा दोनों को सम्पन्न बना देती है। राज्यको मार्थिक संपन्नता या उसका ऐश्वर्यलाभ ही प्रजाकी अर्थवृद्धि कर सकता या प्रजाको राज्यसंस्थामें अनुरक्त बनाकर रख सकता है।
(प्रजाकी गुणवृद्धिका कारण ) पाठान्तर- स्वामिसंपत् प्रकृतिसम्पदं करोति ।