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चाणक्यसूत्राणि
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तथा प्रतिकूलता से निष्फलता निश्चित होजाय तो कर्म करनेकी भावश्यकता ही न रहे। इस दृष्टिसे मनुष्यकी दैवाश्रितता पुरुषकारका विरोध करती है । पुरुषार्थ से कर्तव्य करना भवितव्यताकी उपेक्षा करके ही संभव होता है । भविष्यकालीन भौतिक सफलता, विफलता मनुष्यबुद्धि के लिये अज्ञेय होती है। भौतिक सफलता विफलता के साथ मानवजीवन के जयपराजयका कोई सम्बन्ध नहीं है । भौतिक सफलता विफलता दोनों में से कोई भी हो प्रत्येक परिस्थितिमें विजयी जीवन बिताते रहना मानवजीवनका लक्ष्य है ।
अनेकवार पुरुषार्थ होनेपर भी कार्य सिद्ध नहीं होते। इसी कारण गीता देवको कार्यके पांच कारणोंमेंसे एक कहा है 1
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् । विविधाश्च पृथक् चेष्टा दैवं चैवात्र पंचमम् ॥
( १ ) आधारस्थान, ( २ ) कर्ता, (३) भिन्न भिन्न कारण, ( ४ ) नाना प्रकारके पृथक् पृथक् व्यापार, तथा ( ५ ) दैव ये पांच कारण शारीर, वाचिक तथा मानस कमोंके कारण होते हैं।
चाणक्य जो कहना चाहते हैं वह यह है कि मनुष्य कर्मके प्रारम्भ में देवाश्रित न हो । यदि वह प्रारंभ में ही देवाश्रित हो जाय तो कर्म प्रारंभ ही नहीं हो सकता । यह आवश्यक है कि मनुष्य कर्मको प्रारंभ करते समय देव अर्थात् अनिवार्य भौतिक प्रतिकूलता अनुकूलताकी उपेक्षा करे । जब कर्म प्रारंभ कर देने पर तथा समस्त बुद्धिवैभव व्यय करदेनेपर भी काम न हो तब देव अर्थात् भौतिक परिस्थितिकी प्रतिकूलताको कारण माने और उसे अपनो निष्फलता समझकर दुःखी न हो । मनुष्य पुरुषार्थ करने से पहिले दैवको न माने या उसपर ध्यान न दे । पुरुषार्थ समाप्त हो चुकने के अनन्तर दैवका अधिकार होता है। कर्म प्रारंभ करनेसे पहिले दैवके विचा का कोई प्रसंग नहीं है । कर्मकी प्रारंभावस्था में दैवका विचार करनेसे मनुष्य भाग्य भरोसे, दीन और अनुत्साही होकर नष्ट होजाता है। कर्मके