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विलम्बकारित्व कार्यका दूषण
प्रारंभ में पुरुषार्थका काम है। कर्म करचुकनेपर वह दैवके अंधेरे क्षेत्र में चलाजाता है ।
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( अव्यवस्थित चित्तताकी हानि )
असमाहितस्य वृत्तिर्न विद्यते ॥ १०० ॥ अव्यवस्थित चित्तवाले पुरुषके पास वृत्ति ( अर्थात् सद्वृत्ति अर्थात् सद्व्यवहार करानेवाली सद्भावना ) नहीं रहती । अनीह मानस्य वृत्तिर्न विद्यते ।
पाठान्तर
देवाश्रित होकर निश्चेष्ट बैठे रहनेवाले के पास जीवनयात्रा के साधनोंका अभाव होजाता है ।
विवरण -- अष्टमान अनुद्योगीका जीवन व्यर्थताका क्रीडाक्षेत्र बन जाता है । वह पाठान्तर प्रकरणानुकूल है ।
( कर्तव्यतानिश्चय से अनन्तर कार्यारम्भ )
पर्व निश्चित्य पश्चात् कार्यमारभेत् ॥ १०१ ॥
कार्यारम्भ करने से पहले उसकी अनिवार्यकर्तव्यता, उसके फलाफल, उसकी नीति तथा उपायके सम्बन्ध में अभ्रान्त होकर पीछसे काममें हाथ डालना चाहिये |
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विवरण - सोचकर करना चाहिये । करके सोचनेकी स्थिति पश्चात्ताप भरी निष्फल स्थिति है । अविचारितकार्येषु प्रमादाः सम्पतन्ति हि । विना विचारे कार्यों में प्रमाद तथा प्रमादसे उत्पन्न होनेवाली विपत्तियां अनिवार्य रूप से बाखडी होती हैं । इसलिये पहले कर्मसंबद्ध समस्त सामग्रियों तथा चिन्ताओंका संकलन करके तत्र काम प्रारंभ करना चाहिये ।
( विलम्बकारिता कार्यका दूषण )
कार्यान्तरे दीर्घसूचिता न कर्तव्या ॥ १०२ ॥
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कर्मके मध्य में कर्तव्यभ्रष्टतारूपी या अतिविलम्बकारितारूपी दीर्घसूत्रता न करनी चाहिये ।
विवरण - कर्तव्यको लम्बा करना या " अभी शीघ्रता क्या है
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