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कर्मोत्तरकाल देवका क्षेत्र
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अर्थात उपेक्षा करके आत्मशक्ति से पुरुषार्थ कर । न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः | मृग सोते सिंहकी भूक मिटानेके लिये उसके मुंहमें स्वयं नहीं घुसते । यद्यपि प्राकृतिक प्रबन्धने उन्हें उसके लिये नियत कर रखा होता है तो भी उसे उन्हें भोज्यरूपमें पानेके लिये हाथपैर मारने ही पडते हैं ।
शिवमौपयिकं गरीयसीं फलनिष्पत्तिमदूषितायतीम् । विगणय्य नयन्ति पौरुषं विजितक्रोधरया जिगीषवः ॥
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क्रोधावेशपर विजय पालेनेवाले स्थिरचित्तलोग भविष्य में निश्चित विजय दिलानेवाली नैराश्यहीन महत्वपूर्ण सफलताको अपनी मुट्ठीमें भा - चुकी हुई मानकर कल्याणकारी उपायोंको पुरुषार्थका रूप देदेते अर्थात् - उन्हें कार्यरूप में परिणत करदेते हैं ।
( पुरुषार्थ की प्रबलता )
पुरुषकार मनुवर्तते देवम् ॥ ९८ ॥ है
दैव पुरुषार्थके पीछे चलता
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विवरण -- दैवके भरोसेपर कर्तव्य निर्णय नहीं होता । कर्तव्यपालनमें देवका कोई स्थान नहीं है। मनुष्यको दैवको दृष्टिसे बाहर रखकर ही पुरुषार्थ करना पडता है | पुरुषार्थ ही मुख्य है । देव गाँण है। जो करना है वह पुरुषार्थ है, जो करचुके वह देव है । मनुष्यका वर्तमान से संबन्ध है । भूतके साथ उसका निर्भरताका संबन्ध नहीं है ।
( कर्मका उत्तरकाल देवका अधिकार क्षेत्र है, कर्मकाल नहीं ) देवं विनातिप्रयत्नं करोति यत्तद्विफलम् ॥९९॥
दैव अर्थात् भाग्यकी अनुकूलताके बिना उत्तम रीति से किया हुआ कर्तव्य भी भौतिक फलसे रहित होता है ।
विवरण - भाग्यको अनुकूलता के भरोसेपर रहा जाय तो कर्तव्य प्रारंभ ही नहीं किया जासकता । यदि भाग्यकी अनुकूलतासे भौतिक सफलता