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चाणक्यसूत्राणि
उस कर्मके संबंध सत्यकी सेवारूपी कर्तव्य पालनका सन्तोष तब ही रद्द सकता है जब कि वह कर्म समाज के लिये कल्याणकारी होनेका प्रतिबन्ध ( शर्त ) पूरा करता हो । यदि वह कर्म समाज कल्याण नहीं करेगा तो वह सत्य न कहाकर असत्य कहा जायगा । इसीप्रकार मनुष्य दानके नामसे जो भी कुछ त्याग करेगा वह सत्यके हाथमें आत्मदानरूपी सच्चे दानके नामसे तब ही सम्मानित होसकेगा, जब कि वह समाजमें मनुष्यताको सुरक्षित रखने के उद्देश्य से समर्पित किया गया होगा । यदि वह समाज में मनुष्यताकी रक्षाकी दृष्टिसे समर्पित किया हुआ न होगा, तो वह दान न कहलाकर कुदान कहा जायगा । यही सत्य तथा दानकी धर्ममूलकताका रहस्य है ।
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सत्यरक्षा मानवका स्वधर्म स्वीकृत होजानेपर सत्य स्वयमेव स्वीकृत होजाता है । सत्यरक्षा के मानव धर्म स्वीकृत होजानेपर मनुष्यकी संपूर्ण भौतिक संपत्ति सत्यकी सेवामें नियुक्त होकर अनिवार्य रूप से लोक-कल्याणरूपी दानका रूप धारण करलेती है ।
इज्याध्ययनदानानि धृतिः सत्यं तपः क्षमा । अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याप्रविधः स्मृतः ॥
यज्ञ, अध्ययन, दान, धृति, सत्य, तप, क्षमा तथा निर्दोभिता यह धर्मका अष्टविध मार्ग बताया जाता है। समाज में मनुष्यताकी रक्षारूपी धर्मके मुख्य उद्देश्य के उपेक्षित होनेपर धर्मके नामसे जो भी कुछ किया जाता है वह असत्यकी ही सेवा होती है ।
( मनुष्यताको रक्षारूपी कर्तव्यपालन विश्वविजयका साधन ) धर्मेण जयति लोकान् ॥ २३८ ॥
धर्म-रक्षा (सत्य-रक्षा) मानवको विश्वविजेता बना देती हैं। विवरण- समाजमें मनुष्यता के संरक्षक धार्मिकोंकी जो निष्ठा और कीर्ति है वही तो उन लोगों का विश्वविजय है । असत्यका दमन या असत्यका