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चाणक्यसूत्राणि
पराये दैहिक भेदों को तो उठाकर बालेपर रख देता है और समाजके माहित को अपना ही माहित तथा दूसरोंपर हुए अन्यायों को अपने ही ऊपर हुआ अन्याय मानकर उनका प्रतिकार करने में दत्तचित्त हो जाता है। उसका समस्त जीवन उसके व्यावहारिक अध्यात्मकी प्रयोगशाला बन जाता है । सच्चे साधुओका अन्यावहारिक अध्यात्मसे कोई सम्बन्ध नहीं होता।
(राजनैतिक ठगोंका माननीयोंको नीचा दिखाना) ( अधिक सूत्र ) सर्वत्र मान्यं भ्रंशयति बालिशः। मूढ लोग सर्वत्र ( सब स्थानों तथा सब कामों में ) सम्मानार्ह लोगोंका महत्व छीनना चाहा करते है।
विवरण- मूढ लोग नहीं समझते कि हमारी किप्त बातसे किसका क्या अपमान हो जाता है ? वे तो जैसे स्वयं नीच होते हैं, वैसे ही सम्मानार्ह व्यक्तिको भी अपने जैसा नीच सिद्ध करना चाहते हैं। वे जैसे अपनी मनुष्यताकी अवज्ञा करते हैं वैसे ही सत्पुरुषोंकी मनुष्यताकी भी करते हैं । वे किसीकी अवज्ञाको भी अपराध नहीं समझते । नीति के अनुसार तो सच्चे मनुष्यका कर्तव्य है कि वह चोरों को दण्ड दे, शठोंको शठतासे व्यर्थ करे, श्रेष्ठों का मान करे तथा दोनोंको दान दे।
(निन्दित आहार ) मांसभक्षणमयुक्तं सर्वेषाम् ।। ५६३ ।। मांस मनुष्यका आहार बनने योग्य पदार्थ नहीं है। विवरण- मनुष्यकी साधारण बुद्धि खाद्य अखाद्यका विचार करते समय वानस्पतिक या प्राणिज दो भिन्न भिन्न प्रकारके पदार्थों में श्रेष्ठ या ग्राह्यअग्राह्यका विचार करती है। प्रकृतिने अन्न, शाक, फल, कंद, मूल आदि वानस्पतिक आहारको ही मनुष्य के स्वाभाविक आहारके रूपमे निर्दिष्ट किया है । इसलिये वही उसके स्वाभाविक खाद्य के रूप में ग्रहण करने योग्य है ।