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चाणक्यसत्राणि
( मूल्के सच्चे मित्र नहीं होते )
नास्त्यर्धामतः सखा ।। २३३॥ मूर्खको बन्धु मिलना संभव नहीं है । विवरण-बन्धुस्वका बन्धन तो सत्यनिष्ठामें ही रहता है । मूखीका संबंध स्वार्थमलक (अर्थात् पारस्परिक माखेटमूलक ) होता है। मौके पारस्परिक सहयोगोंके भीतर शत्रुता ही छिपी-छिपी काम करती रहती है । वे एक दूसरेके साथ सहयोगका जो संबंध रखते दिखाई देते हैं, वह संबंध उनकी पारस्परिक लुण्ठनप्रवृत्तिमूलक शत्रुता ही होता है। वे एक दूसरेके शत्रु होते हुए भी अपनी भ्रान्त बुद्धिसे एक दूसरेको मित्र कहा करते हैं।
बुद्धिमानोंके पारस्परिक संबंध स्वार्थमूलक नहीं होते । यही उनकी वह व्यवहार-कुशलता है जिससे उनके साथ लोगों की सुदृढ मित्रता स्थापित हो जाती है । निःस्वार्थता ही समाज-संगठनमें एकमात्र अपेक्षित गुण है । स्वार्थी बनकर समाजका शत्रु बनजाना बुद्धिहीनता है ।
( कर्तव्य ही मानवका अनुपम मित्र ) ( अधिक सूत्र ) नास्ति धर्मसमः सखा । संसारमें मनुष्यका धर्म या अपने मानवोचित कर्तव्यपालनके समान कोई सुहृद् नहीं है।
विवरण- मानवोचित कर्तव्य-पालन ही मनुष्यका सच्चा मित्र है। कर्तव्य-पालन करनेवाले लोग कर्तव्यको ही अपना मित्र बनालेते हैं। कर्तव्य. पालनसे संसारमें मनुष्यके हृदयमें साफल्यमयी अखंड शान्ति रहने लगती भौर जीवन-यात्रा पग-पगमें विजयी होनेका संतोष देती रहती है।
एक एव सुहृद्धर्मो निधनेऽप्यनुयाति यः ।
शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यत्त गच्छति ॥ मनुष्य के मर जानेपर भी धर्म नहीं मरता। शेष सब पदार्थ शरीरके साथ नष्ट होजाते हैं।