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धर्मका महत्व
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धारणाद्धर्म इत्याहुन लोकचरितं चरेत् । ( महाभारत ) जगत्को मर्यादामें रखनेका हेतु धर्म है । मनुष्य धर्मानुकूल आचरण करे । वह क्षुद्र मनुष्य के समान मर्यादाका भंग न करे।
(धर्मका महत्व )
धर्मेण धार्यते लोकः ॥ २३४ ॥ लोक-विधारक सत्य रूपी मानव-धर्म ही मानव-समाजका संरक्षक है।
विवरण- श्रेष्ठ कर्म करना तथा भश्रेष्ठसे बचना ये दो धर्मके बडे भेद हैं। धार्मिक मनुष्यको कर्तव्य करने पड़ते हैं और अकर्तव्य त्यागना उसका स्वभाव होजाता है।
धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा ( वेद ) प्रवृत्ति-निवृत्ति रूपी धर्म ही संपूर्ण मानव-समाजका धारक माधार है ।
प्रेतमपि धर्माधर्मावनुगच्छतः ॥ २३५॥ देहीके धर्माधर्म देहका अन्त हो जानेपर भी उसके साथ लगे रहते हैं।
विवरण- मानव-जीवनका अन्त हो जानेपर भी उसके धर्माधर्म नष्ट नहीं होजाते । मानव-देहके विनाशी होनेपर भी उसका देही तो अविनाशी ही है । देह मनुष्य का विनाशी रूप है और देही उसका भवि. नाशी अमर रूप है। उसका यह अविनाशी रूप ज्ञानी अज्ञानी दो रूपों में मनुष्य-समाजमें सदा जीवित रहता है। वह देहके मर जानेपर भी मानव-समाजको धारण किये रहता है । एक चला जाता है दूसरा भाजावा है । परन्तु मानव-समाजका धारक मानव धर्म-संसारमें धर्माधर्मका संग्राम करता रहता है। वह अधर्मसे संग्राम करके विजयी बना रहता है । यों धार्मिक लोग मानव-समाजके शाश्वत संरक्षक होते हैं। धर्मका स्याग