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चाणक्यसूत्राणि
करदेना अपने अविनाशी सत्यरूपसे व्युत होकर अज्ञानरूपी मृत्युको ही अपनाना होता है । इसी प्रकार धर्मत्यागी मानवका पाप उसके देहके नष्ट होजानेपर भी दिन-रात आठों पहर समाजको अध:पतित करने में लगा रहता है ।
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यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ।
जिससे मानवका ऐहिक अभ्युदय भी हो और साथ ही उसका मानस उत्कर्ष भी हो वह " धर्म " है । धर्मके दो महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व हैं । वह मनुष्यको श्रीसम्पन्न भी बनाये और उसकी मानवताको भी निर्मल करता चला जाय । जिस धर्मसे ये दोनों प्रतिबन्ध ( शर्त ) पूरे नहीं होते वह धर्माभास है ।
धृतिः क्षमा दमोsस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥
धीरज, क्षमा, अनुत्तेजना भोगेच्छापर नियन्त्रण, अनधिकार - संग्रहका त्याग, शौच, इन्द्रियनिग्रह, आत्मबोध, सत्य तथा अक्रोध ये दस धर्मके लक्षण मनु कह गये हैं । इन्हीं से संसार में शांति रहनी संभव है । ( धर्मकी माता )
दया धर्मस्य जन्मभूमिः ॥ २३६ ॥
( परदुःख - कातरता या सहानुभूति रूपी ) दया से धर्मनिष्ठा पैदा होती है ।
विवरण- दया ही ऐहिक अभ्युदय और मानस उत्कर्ष पैदा करनेवाले धर्मकी जन्मभूमि है । दया रूपी जन्मभूमि न हो तो धर्मोत्पत्ति असंभव है। मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा अर्थात् पुण्यात्माओंसे मैत्री, दुखियोंपर करुणा, सुखियोंको देखकर मुदिता, पापियोंके प्रति घृणा से चित्त-नैर्मल्यकी अभिव्यक्ति होती है । निर्मल चित्तमें ही दया उत्पन्न होती है । दयालु चित्तमें ही कर्तव्य पालनकी भावना होती है। सत्य-रक्षा ही मनुष्यका
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