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चाणक्यसूत्राणि
( स्वर्गका साधन ) स्वर्ग नयति सूनतम् ।। ४१६ ॥ सत्य मनुष्यको स्वर्गस्थ बनाता अर्थात् उसे अखण्ड सुखमयी स्थितिम आरूढ कर देता है ।
विवरण.- मनुष्यमात्रके कल्याणमें आत्मकल्याणबद्धि ही सत्य है। मनुष्यका यथार्थज्ञान तथा तदनुकूल प्रामाणिक माचरण उसके जीवनको तथा उसके समाजको प्रत्यक्ष स्वर्ग बना देता है । दुःखातीत स्थिति ही स्वर्ग है। कामनातीत स्थिति ही सत्य है। सत्यको अपनाना निकामतारूपी अक्षय स्वर्ग पा लेना है।
सत्य का अर्थ प्रत्यक्ष ( नकद ) भौतिक हानि उठाना और उठाकर भी आत्मप्रसाद देनेवाले सिद्धान्तको न छोडना है। असत्यका अर्थ प्रत्यक्ष ( नकद ) भौतिक लाभ उठानेके लोभमें आकर सिद्धान्तका सिर कुचलना है । सत्य से मनका उत्कर्ष परन्तु भौतिक हानि अनिवार्य रूपसे होती है । क्योंकि सिद्धांतहीन लाभोंको घृण्य जानकर त्यागना ही सत्य है । सस. स्यसे मनका तो निश्चित रूप में पतन होता, परन्त भौतिक लाभ होता है । संसारका भोगवादी बहुमत सत्यसे भौतिक हानि तथा असत्य ( सिद्धान्त. हीनता ) से भौतिक लाभ देखकर स्वर्गको टकराकर नरकनिवासको सपना लेता है । सत्यको अपनानेवाले को संसारमें धक्के, भुक्के, अपमान, विनाश और उपेक्षा नियमसे भोगनी पडती है। उसका मानसिक स्वर्ग ही उसके अत्याचारित पीडित हृदयको थामे रखनेवाला अकेला पृष्ठपोषक जीवनसंगो होता है। वही उनसे संसारकी बृहत्तम विपत्तियोंमें ढाढस बंधानेके लिये ससकी पीठ पर अनुमोदनका हाथ लगाता रहता है। सत्य मनुष्यको और कुछ तो चाहे दे या न दे वह उसे स्वर्ग तो निश्चितरूपमें देता है। वह उसे दुःखातीत साम्राज्यका अनिभिषिक्त भूपति तो बना ही देता है। सत्य मनुष्यको मर्त्यलोकका कीडामकौडा न रहने देकर उसे स्वर्गकी दिग्य विभूति बना देता है । भो सच्चे मानव ! बता तू सत्यसे इससे अधिक और क्या चाहता है ?