________________
धर्मद्रोह अकर्तव्य
कदाचिदपि ( कथंचिदपि ) धर्म निषवेत् ॥ ४१५॥ मनुष्य कभी (किसी प्रकार ) तो धर्मानुष्ठान करे । विवरण- धर्मानुष्टान ही मनुष्य-जीवनका ध्येय है । क्षणभर के लिए भी धर्मच्युत न होने का सिद्धान्त प्रचार ही करने योग्य है । यह पाठ उचित प्रतीत नहीं होता।
(धर्मद्रोह अकर्तव्य) ( अधिक सूत्र ) न कदाचिदपि धर्म निषेधयेत् । धर्मका विरोध कभी न करे और न कराये । विवरण- आत्मकल्याणमें मनष्यमात्रका कल्याण तथा मनुष्यमात्रके कल्याणमें आत्मकल्याण देखने वाली बद्धि हो वेद प्रतिपादित मानवधर्म है । क्रोध, लोभ या द्वेषसे धमके प्रति अनादरको मन्थनकारी उत्तेजना आजाने पर भी मन, वाणी तथा काया तीनों में धीरज किये तथा धर्मविरुद्ध माच. रणको न तो स्वयं पराये और न दसगको धर्मनिषेधकी प्रेरणा दे। __ मनुष्य धर्मविरोधी माचरण को अपनाने तथा दूसरों को धर्मच्युत होने की प्रेरणा देने से नीच अविश्वास्य तथा अपयशका भागी हो जाता है। धार्मिक लोग आत्मसन्तुष्ट, परहित-निरत, माननीय तथा प्रशंपित रहते हैं।
न जातु कामान भयान्न लोभाद धर्म त्यजेजीवितस्यापि हेतोः ।
कल्याणकामी मानव अपने धर्म को काम, भय या लोभका प्रबलतम प्रभाव पडनेपर भी जीवित तकके लिये भी न त्यागे। मनुष्य धर्मरक्षाके लिये मृत्यु तकसे न डरे । मनुष्यको बारबार नहीं मरना है । उसे एक वार तो मरना ही पडेगा। सत्यरक्षाके नामपर मरना तो सौभाग्यशाली मृत्यु है। धर्महीन लोग स्वार्थान्धतासे पशुओं के समान काम, लोभ, क्रोधपरायण होकर दूसरोंपर निर्दय आक्रमण करते भौर कराते हैं। धर्महीन लोग जीवन में अनन्त वार ज्ञानकी मौत मरते रहते हैं। ऐसे लोग संसारमें ऊंचेसे ऊंचा ऐश्वर्य पाकर भी सदा ही नीच कोटि के अविश्वास्य मानव माने जाते हैं ।