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________________ चाणक्यसूत्राणि दन पाकर समृद्ध होकर भोजनाच्छादन चिन्तासे मुक्त रहें तथा उनकी निश्चिन्त बुद्धि समाजका कल्याण करने के उपयोग में आती रइसके । २६० अधनः स्वभार्ययाऽप्यवमन्यते ॥ २९३ ॥ परिवार के लिये जीवनसाघन न जुटा सकनेवाला निर्धन अपनी भार्यासे भी अपमानित होता है । विवरण - पत्नी आदि परिवारकी जीवनयात्रामें धनको आवश्यकता होती है । पारिवारिकों की जीवनयात्रा के लिये गृहपतियोंका धनपति होना परमावश्यक है । जैसे वृक्षवासी पक्षी फलपुष्पपत्रहीन सूखे वृक्षोंको या जैसे जलवासी पक्षी शुष्क सरको त्याग देते हैं, इसीप्रकार धनद्दीन मानव अपने स्वजनोंकी श्रद्धा तथा स्नेहके आकर्षणसे वंचित होजाते हैं । इसलिये यह राजाका ही उत्तरदायित्व है कि वह राष्ट्रके बुद्धिमान् लोगोंको धनाभाव के कारण पारिवारिक अशान्तिजनक व्यग्रता से राष्ट्रके लिये अनुपयोगी तथा बेकार न होने दें, किन्तु उन्हें राष्ट्रसेवा के लिये कर्मशील बनाये रखें। इम सूत्रका यह भाव भी है कि जो लोग पारिवारिक सुख चाहें वे परिवारकी जीवनयात्रा के लिये वैध उपायोंसे धनसंग्रह करें। धनहीनः पाठान्तर ...... 1 पुष्पहीनं सहकारमपि नोपासते भ्रमराः || २९४ ॥ जैसे और पुष्पकाल बीत जानेपर पुप्पहीन प्रिय आम्रवृक्षको भी त्याग देते हैं इसीप्रकार यह धनजीची संसार निर्धन व्यक्तिके पास अपनी घनाकांक्षाकी पूर्ति की संभावना न देखकर उसे त्याग देता है । विवरण- बुद्धिमानोंकी धनहीनताको दूर करके उन्हें समाज में उपेक्षित होने से बचाना राष्ट्रसेवक राजाका हो उत्तरदायित्व है। इसलिए है कि राष्ट्र सुबुद्धिपरिचालित तथा सन्मार्गगामी बना रद्दसके ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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