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विद्याधनकी श्रेष्ठता
(निर्धनोंका सम्मानित धन )
विद्या धनमधनानाम् ॥ २९५ ॥ विद्या निर्धनोंका धन है।
विवरण- विद्यामें यह सामर्थ्य है कि वह गुणग्राही ज्ञानियोंसे निर्धन विद्वानों का आदर करना देती है। निर्धन विद्वान् लोग अपने विद्याधनको धनियोंके धनोंसे श्रेष्ठ धन मानकर उससे परितृप्त रहते तथा उसका साविक अहंकार भी रखते हैं। वे धनोपासक समाजकी भोरसे उपेक्षित होनेपर भी अपनी विद्याका आदर स्वयं करके तृति अनुभव करते हैं । वे धनमत्त धनि. योंके किये निरादर या उपेक्षाका पात्र बनना ही अपनी विद्वत्ताका प्राप्य गौरव समझते हैं। धनलोलुप संसारका यश धनमत्तोंके चाटुकारोंको ही प्राप्य होता है । विद्या मोतिक धनसे श्रेष्ठ होती है । धन अनेक प्रकार के होते हैं । सब व्यक्ति एक ही प्रकार के धनके धनी नहीं होते। यह सब संसार एक ही प्रकारके कामके लिये नहीं बना । भौतिक धनका धनी बनना सबके लिये प्रयोजनीय नहीं है। विद्या, कला, तपस्या, उदारता, सेवा आदि अनेक ऐसे देवदुईभ धन हैं जिन्हें देवी धन कहते हैं. संसारी धन जिनके घर पानी भरते हैं, जिनसे निर्धनलोग भी संसारके पूज्य बनजाते तथा उनकी जीवनयात्रा भी सुकर होजाती है।
वित्तं बन्धुर्वयश्चैव तपो विद्या यथोत्तरम् ।
पूजनीयानि सर्वेषां विद्या तेषां गरीयसी ।। धन, बन्धु, आयु, तप तथा विद्यामें पिछले पहलोंसे पूजनीय है । विद्या (मात्मज्ञान-तत्वज्ञान ) सबमें श्रेष्ठ है।
(विद्याधनकी श्रेष्ठता ) विद्या चोरैरपि न ग्राद्या ।। २९६ ।। विद्या मनुप्यका आन्तर गुप्त धन होनेसे चोरोंसे भी नहीं चुराई जासकती।