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________________ २६२ चाणक्य सूत्राणि विवरण- विद्या विद्वानों का लक्षय, भचौर्य, अविभाज्य, मनपहरगीय तथा व्ययसे वर्धिष्णु धन है । अपने विद्याधनसे सन्तुष्ट विद्वान्को सन्तोषधन स्वतः प्राप्त रहता है । विद्वान् होते हुए भी संतोषसे वंचित रहना मूढता है। विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम् । विद्या राजसु पूजिता न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ।। न चौरहार्य न च राजहार्य न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि। व्यय कृते वर्धत एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ॥ विद्या मनुष्य का असाधारण सौन्दर्य तथा गुप्त धन है। राजामामें विद्या पुजती है, धन नहीं। विद्याविहीन मनुष्य पशु है। विद्या चोरोंसे चुराई नहीं जाती, भाइयों से बांटो नहीं जाती, भार ( बोझ ) नहीं करती तथा जितना व्यय करो उतनी ही बढती है । सचमुच विद्याधन समस्त धनों में शिरोमणि है। "जीवनसाफल्य करी" तथा "अर्थकरी भेदसे विद्याके दो रूप हैं : समा. जको अर्थकरी विद्यापार्जन का प्रतीक्षक बनाना राष्ट्रको न्याधिग्रस्त बनाडालना है। भाज संसार में सर्वत्र धनोपासनाका विकृत भादर्श मनुव्यसमाजकी बुद्धि को भ्रष्ट कर रहा है। समाज के बुद्धिमान् लोगोंको अपने राष्ट्रको इस च्याधिसे मुक्त रखने के लिये उसे ( उसकी राज्यसंस्थाको ) धनोपासक समाजद्रोही भोगेश्वयं-परायण प्रतारकोंके हाथोंसे बचाकर रखना चाहिये । । पाठान्तर--- विद्या चारैरपि न हार्या । (विद्या यशःकरी) विद्यया ख्यापिता ख्यातिः ॥ २९७ ।। विद्यासे यशका विस्तार होता है। विवरण- जिस राज्यमें सच्ची विद्याका भादर होता है उस राज्यको प्रजा में राजाका सुयश अनिवार्य रूपसे फैलता है । राजा विद्याका मादर करके ही प्रजाके हृदय में अपना अटल सिंहासन स्थापित कर सकता है।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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