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मन्त्रीकी योग्यता
प्रभावयुक्त कष्टसहिष्णु, शुद्धस्निग्धव्यवहारी, सुरढ राजानुरागी, शील, बल, भारोग्य तथा बुद्धिसंपन्न, गर्वहीन नम्र, स्थिरबुद्धि, सौम्यमूर्ति, तथा निवैर होना चाहिये।
मन्त्रमला: सोरम्भाः॥ २२॥ भविष्यमें किये जानेवाले सब काम मंत्र अर्थात् कार्यक्रमकी पूर्वकालीन सुचिन्तासे ही सुसम्पन्न होते हैं।
विवरण- उस उस विषयके विशेषज्ञोंके साथ उन कर्माकी विधियों, साधनों तथा कर्तामोंकी सांगोपांग चिन्ता ही समस्त कर्मोंकी मूल अर्थात् प्रारंभिक आधारशिला है। कौके समस्त उपक्रम मंत्रपूर्वक होनेपर ही समी. चीन होते हैं । तब उनके सुफलोत्पादक होनेका सुनिश्चित विश्वास होजाता है । सोचकर किये हुए कर्म ही समीचीन होते हैं । सुचिन्तित वचन तथा सुचिन्तित कार्य कभी नहीं बिगडते । सब कर्मोंकी स्थिरता मोर दृढताकी रक्षा करनेका मूल मन्त्रणामें ही रहता है।
हिताहितविचारकी गुप्त बातें “मन्त्र" कहाती हैं । अपने राष्ट्रकी सुष्यवस्था तथा परराष्ट्र के साथ सन्धि, विग्रह मादि कार्योंके स्वरूपकाका निर्धारण चिन्तापूर्वक करना पड़ता है। कर्म करने से पहले कर्मकी स्वरूपचिन्ता कर. लेनी चाहिये । उसके पश्चात् उसे करना चाहिये । यही सफलताका सुनिश्चित मार्ग है । इसलिये राजा लोग किसी अविचारित कामको हाथ न लगाकर प्रत्येक काममें ,मन्त्रकी नीतिको अपनायें ।
महामति चाणक्यने मन्त्रणामें विचारणीय पांच विषयों का वर्णन इस प्रकार किया है__ कर्मणामारम्भोपायः, पुरुषद्रव्यसंपत् , देशकालविभागो, विनिपातप्रतिकारः कार्यसिद्धिश्चेति । १- काँको प्रारंभ करनेके उपाय, २- पुरुष तथा अपेक्षित द्रव्योंकी उपस्थिति, ३- कार्ययोग्य देश तथा कालका उचित निर्णय, ४- बिगडे कार्यका सुधार तथा ५- कर्मकी स्थिति, वृद्धि आदि तथा उसके उपायोंका निरीक्षण ।