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________________ ५३० चाणक्यसूत्राणि सृष्टिव्यवस्थाने जिन प्राणियों को स्वभावसे मांसभोजी बनाया है, वे घुट भरकर पानी नहीं पी सकते किन्तु जीभसे चाटचाटकर पीते हैं । पसीना मांसभोजियों के समस्त शरीर पर न लाकर जिह्वाके अग्रभागसे लारके रूप में टपका करता है, मुख में खाद्य चाबनेवाली दाढे न होकर मांस काटने के तीक्ष्ण कीलें होते हैं । इत्यादि अनेक चिह्न स्वभावसे सामिय भोजियों में ही पाये जाते हैं । इससे प्रकट है कि प्रकृतिमाता मानवको मांसभोजी देखना नहीं चाहती। मोक्ष (चतुर्थ पुरुषार्थ) का प्रतिपादन [ ग्रंथकार यहाँसे आगे अपने पाठकोंमें तत्वज्ञानमयी बुद्धि या मोक्षरूप चतुर्थ पुरुषार्थक समुन्मेषपर विशेष बल लगा रहे हैं ।। (ज्ञानीके लिये संसारमें दुःख नहीं है ) न संसारभयं ज्ञानवताम् ॥५६४॥ शानी व्यक्तियोंको संसारमें दुःख-भय नहीं रहता। विवरण- ज्ञान स्वयं ही सुखरूप तथा भीतिहीन स्थिति है । अज्ञान ही दुःख तथा भयस्वरूप है । संसारमै ज्ञानीका दुःखी होना परस्परम्याहत अवस्था है। क्योंकि दुःखनिवृत्तिको कला हो तो ज्ञान है। सुखदुःखके स्वरूपोंको न समझना हो तो अज्ञान है । अज्ञानी मानव दुःखको ही सुख मानकर दुःखवरण कर बैठता है । ज्ञानी सुनेच्छारूपी दुःखकोही दुःख के रूपमें पहचानकर उसे त्याग देता और निकामनासक्त रहकर कर्तव्य. पाल नवे संतोपरूपी अखंड सुखका अधिकारी बनता है। भोगासत जीवन त्याग देने वाले संसार के मूल कारण अपने स्वरूप के ज्ञाता ज्ञानी व्यक्तिको संसारबन्धन में बंध जाने का भय नहीं रहता । इसालय नहीं रहता कि उसे देहगेह मादि में अदभाव या ममभाव शेष नहीं रहता ! अहंभाव और मम. भाव ही भयका कारण होता है। हाइमम भाव शेष न रहने से ज्ञानीको किसी बातका भय नहीं रहता। "अधरोत्तरमस्तु जगत् का हानिर्वीतरा. गस्य" संपर चाहे उलटपुलट हो जाय वीतरागका क्या बिगडता है ?
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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