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शानदीपकसे संसारान्धकारका विनाश
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ज्ञानी नित्यमुक्त और सर्व मुक्त है। वह सर्वमुक्त रहकर ही जागतिक व्यवहार करता है । संसारके पदार्थों में न उलझना ही उसकी मुक्ति है और यही उसकी ज्ञानयी स्थिति भी है । फलाकांक्षा ही उलझन या आसक्ति है । अपनी फलाकांक्षा पूरी होती न दीखे तो कर्तव्य त्याग देना अर्थात् भकर्तव्य करना रूपी भासक्ति है । ज्ञानी मानव फलाकांक्षासे रहित शुभ कर्मकी प्रेरिका शुभ भावनासे स्वयं कृतकृत्य रहकर ही कर्म किया करता है। वह अकृतकृत्य, अकृतार्थ, फललोभी, दीन, दुखिया होकर कभी कोई काम नहीं करता। वह अपनेको भौतिक फलकी भाशारूपी रस्सीसे कभी नहीं बंधने देता । 'न बिभेति कुतश्चन ।'
अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्वा यश्चरते मुनिः। न तस्य सर्वभूतेभ्यो भयमुत्पद्यते क्वचित् ॥ जो सब भूतों को अपनी ओरसे अभयदान दे देता है उसे किसीसे भी भय नहीं रहता।
अथवा- ग्यवहारकुशल विचारशील लोग संसारी घटनामोंपर अपने विचार-बलसे माधिपत्य पा लेते हैं। इस कारण मूल्को भयानक तथा दुरूह दीखनेवाला संसार-सागर उनके लिये भयानक या दुरूह न रहकर गोपदके समान सुनसन्तरणीय पवित्र कर्तब्यक्षेत्र हो जाता है । पाठान्तर-न संसारभयं ज्ञानिनाम् ।
( ज्ञानदीपकसे संसारान्धकार का विनाश ) विज्ञानदीपेन संसारभयं नितेते ॥ ५६५॥ ज्ञानी पुरुष अपने मनको ब्रह्मानन्दरूपी दीपकसे आलोकित करके रखता और संसार वन में फंसने से बच जाता है।
विवरण--- विज्ञानानन्द झी मिति जानी हय को अपर कार मोहित कर लेती और उसे अपने से अलग नहीं होने देती : मानसिक २२स्न शान्ति ज्ञानी के अधिकार में रखनी । भौतिक सुख शान्ति के प्राकृतिक परिस्थिति के