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चाणक्यसूत्रा
तथा “ मानी प्रतिमानिनमात्मनि द्वितीय मन्त्रमुपादयेत् " इस सूत्रका हमारा अर्थ ही युक्तिसंगत ठहरता है । यह पाठक विशेष ध्यानसे देखें ।
राजा और महामन्त्री अथवा महामन्त्री और विभागीय मुख्याधिकारी ये ही दो दो मिलकर किसी कार्यकी अन्तिम रूपरेखा नियत करें। अपने विभागीय मन्त्रियोंसे मन्त्रणा करके किसी कर्तव्यका निर्णय करना महामन्त्रीका काम होनेपर भी कार्यका अन्तिम निर्णय राजा और महामन्त्री करें । ये दानों मन्त्रगुप्तिके लिये उत्तरदायी हों। पाठान्तर- षट्कर्णो मन्त्रश्छिद्यते। छ: कानों में पहुँचा हुभा मन्त्रा छिन्नभिन्न होजाता है।
आपत्सु स्नेहसंयुक्तं मित्रम् ॥ ३५॥ विपत्तिके दिनोंमें (जब कि सारा संसार विपद्ग्रस्तको विपन्न होनेके लिये अकेला छोड भागता है ) सहानुभूति रखनेवाले लोग मित्र कहाते हैं।
विवरण- जो लोग विपन की विपत्तिको अपने ही ऊपर माई विपत्ति मान लेते और मापकालमें विपद्ग्रस्तका साथ देते हैं, उन्हींको किसीसे मित्रताका संबन्ध जोडने या किसीको अपना मित्र कहनेका अधिकार होता है। इनके अतिरिक्त जो लोग आपत्तिके समय मित्रोंको अकेला विपत्र होनेके लिये छोड देते हैं वे किसीके मित्र बनने या कहलानेके अधिकारी नहीं होते। भानेवाली विपत्तियें ही विपनको शत्रु-मित्रकी पहचान कराती हैं और सच्चे मित्रसे मिलानेवाली सच्ची मित्र बनजाती है। आपत्तिके दिनों में विपक्षका साथ देना और इस साथ देने में जो संकट आ खडा हो उसे सहर्ष सहन करना ही सच्ची मित्रता है । सच्चे लोगोंके पारस्परिक संबन्ध ही मित्रता कहाते हैं । क्योंकि सरचे लोगोंकी मानसिक स्थिति सत्यकी प्रेमिका होती है इस कारण ये लोग शरीरसे भिनभित होते हुए भी मनमें अभिन्न होते हैं। स्वार्थबन्धन मित्रता नहीं है। मित्रता सत्य. निष्ठोंका ही एकाधिकार है । दलीय कार्यक्रम (पार्टीप्रोग्राम ) मित्रता नहीं