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चाणक्यसूत्राणि
भारतका गाईस्थ्यधर्म समाज कल्याणकी उपेक्षा करने लगा है। जिस गार्हस्थ्य धर्मको सामाजिक मोक्षका उपासक होना चाहिये था वह उसकी उपेक्षा करके व्यक्तिगत मोक्ष नामक अलीक लक्ष्यको अपनाकर वर्णाश्रम धर्मकी कल्पनाके मुख्य लक्ष्य सामाजिक श्रृंखलाका संरक्षक न रहकर उसका घातक बन गया है । भारतका प्रत्येक मनुष्य कर्तव्यहीन होकर नैष्कम्र्यसिद्धि नामक मोक्षका प्रतीक्षक बनकर सामाजिक हितों की भोरसे मुख मोड बैठा है । व्यक्तियोंसे ही समाज बनता है । जैसे व्यक्ति होते हैं वैसा हो समाज होता है । एक तिल तेल दे सकता है तो समस्त दिल तैल दे सकते हैं । एक सिकता तैल नहीं दे सकती तो समस्त वितानोंसे भी तेल प्राप्त नहीं हो सकता |
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व्यक्ति अध:पतित हों तो समाज भी अध:पतित होता है। व्यक्तिका अधःपतन समग्र समाजका अधःपतन होता है । समाजका अधःपतन राज्य व्यवस्थाका पतित बनाये बिना नहीं मानता। पतित राज्यव्यवस्था सम्पूर्ण राष्ट्रको निर्बल मनुष्यताले दोन तथा राष्ट्रीय कर्तव्योंसे उदासीन बना डालती है । ऐसे उदासीन राष्ट्रका राजा राष्ट्रको पतितावस्था में रखता और प्रजाकी सुखसुविधाका चोर तथा घातक बन जाता है । चाणक्यकालीन भारत में भी राजा प्रजाका पितापुत्रवाला पवित्र संबन्ध विकृत हो चुका था । प्रजाको केवल धनोत्पादनका यन्त्र मात्र मान लिया गया था और राजा प्रजाके धनोंका संरक्षक न रहकर अपहारक बन गया था | ये सब तब भारतकी आम्यन्तरिक निर्बलतायें थीं जो चाणक्यका मर्मच्छेद कर रही थीं ।
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भारतकी इसी आभ्यन्तरिक निर्बलता के अवसर पर सिकन्दर भारतपर आक्रमण कर बैठा । सिकन्दरका लक्ष्य पहले तो पर्वतकका और फिर मगधका सिंहासन लेकर भारतका सम्राट् बनना था । क्योंकि भारत में ये ही दो मुख्य शक्तिशाली राजा थे। चाणक्यने सिकन्दरके पश्चिमोत्तर भारतपर किये जानेवाले भाक्रमणको रोकनेक लिये मगधराजकी सेवामें स्वयं उपस्थित होकर यह सुझाव लेनेका प्रयत्न किया था कि " पश्चिमोत्तर भारतकी