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शत्रुको असहाय छोडनेका समय
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ध्येय होता है । इस ध्येयसे विच्युत न होना सत्यनिष्ठका प्रतिक्षण सदातन स्वभाव बनजाता है।
पाठान्तर- शत्रोरपि सखा सुतो रक्षितव्यः । मित्र तथा पुत्रकी शत्रुसे भी रक्षा करनी चाहिये । पाठान्तर- शत्रोरपि शत्रुसखाद्राक्षतव्यः । अपने आपको शत्रु तथा उसके मित्र दोनोंसे बचाकर रखना चाहिये ।
( शत्रुको मित्रतासे ठगनेकी अवधि ) यावच्छत्राश्छिदं पश्यति तावद्धस्तेन वा स्कन्धेन
वा वाह्यः ॥ १९३ ॥ शत्रुकी जिस निर्बललापर प्रहार करके उस नष्ट करना हो उसका पता न चलानेनक उसे कृत्रिम मान तथा कृत्रिम मित्रताके प्रदर्शनास धो में रखते रहो।
विवरण--- शत्रका छिद्र हाथ न मारेतक उसे मत छेदो। तब तक उसके दाम्भिक मस्तक के सामने अपना मस्तक ऊँचा करके मत चलो । उसमे मन बिगाडो । उगीको बहु बना रहने तथा नभ में इबा रहने दो और युद्ध मत ठानो । उसका क्षाकमणीय कि हूँढ लेने से प्रथम उपके सामने मस्तक ऊँचा करना उसे रण-निमंत्रण देना है। इस मध्य में उसे उच्चस्थान दिय रहो और उसके विरुद्ध शक्ति-संचय करते रहो।
। शत्रुको असहाय छोड देने का समय ।
श छिद्र परिहरेत् ।। १९४ ।। विजिगीषु राजा शत्रुकी छिद्रावस्था में उसे अपनी सहायतास वंचित करदे पाठान्तर---- शत्रु छिद्रे प्रहरेत् । विजिगीषु राजा शत्रु के निर्बल स्थानपर मारामक प्रहार करे ।