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चाणक्यसूत्राणि
अज्ञानीके पास दूरगामी दृष्टि न होकर वह केवल मापातरष्टि रखता है। वह अपनी आपातदृष्टि से सुख-दुःखोंके यथार्थ रूपोंको समझने में प्रान्ति करके दुःखको ( अर्थात् सुखच्छारूपी अभावग्रस्तताको) ही सुख मानकर अनिश्चित के पीछे भटककर, मानसिक निर्बलताको अपनाकर लक्ष्यहीन अढ बनजाता है। इसके विपरीत सत्यनिष्ठ विजिगीपुके लिये यह सुनिश्चित होजाता है कि वह अपने लक्ष्यपर स्थिर रहने के लिये मानसिक दृढताको अपनाये और नित्यसुखी बने रहने के लिये संसारमें पग-पगपर विजय प्राप्त करता रहकर स्थिररूपसे विजयशील बनकर रहे। विजिगीषु मनुष्य विश्वका सम्राट तो पीछेसे बनता है। पहले तो उसे अपने ही मनोराज्यका सम्राट बनना पडता है। वह बाह्य जगत् में विश्व-सम्राट बननेसे भी पहले ससारकी भौतिक सुख-समृद्धिको अपनी सत्यनिष्ठारूपी मानसिक सुखसमृद्धि की अधीनतामें देकर अपने मनोराज्यका सम्राट बन चुकता है। अपने मनोराज्यका सम्राट बनने के अनन्तर विश्व सम्राट् बननेवाले उस विजिगीषु र जाकी राजशक्ति के सम्मुख समग्र संसारको अवनतमस्तक होकर रहना रडता है।
शोरपि सुतस्सखा रक्षितव्यः ।। ११२ ।। शत्रुका भी पुत्र यदि भित्र हो तो, उसकी रक्षा करनी चाहिये । विवरण---- अर्थात उसे अपने आक्रमण का पात्र न बनाना चाहिए। उद्देश्यकी एकन से मनुष्य पपसे मित्र बनते हैं। सासुरी प्रवृत्तिवाला सत्यद्वेषी ही विजिगीपुका शत्रु होता है । सत्यसे विजयी बना ही विजि. गीपुका ध्येय होता है । सत्यका विरोध करनेवाला तो असत्यका दास होता है । वह उद्देश्य के विरोधसे ही शत्रुता करनेवाला बनता है। उसका पुत्र उस जसा सत्य- शत्रु न होकर अपत्यका तो शत्र नथा सत्यका मित्र होना असंभव नहीं है। यदि किसी शत्रुके पुत्र सत्यनिष्ठ होनेका पुष्ट प्रमाण मिल जाय तो उसे अपना मित्र समझकर उसकी रक्षा करना सत्यकी हो रक्षा करना होगा । सत्यनिष्ठाको अपनायरहना ही सत्यनिष्ठ विजिगीपुका